नई दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएन ढींगरा के खिलाफ अवमानना के मामले में अटॉर्नी जनरल से सहमति मांगने के पीछे आपकी क्या दलील थी ?
दरअसल सुप्रीम कोर्ट भारतीय संविधान के अनुसार चलता है. और इस शपथ का कोई त्याग नहीं कर सकता है. यदि आप न्यायालय के आदेश से संतुष्ट नहीं हैं, तो आप अपील करने जाते हैं. आप रिव्यू पिटीशन के लिए जा सकते हैं. आप सीधे अदालत की आलोचना नहीं कर सकते. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के दोनों जजों ने भी कोई आदेश पारित नहीं किया. उन्होंने मौखिक रूप से ही कुछ टिप्पणी की. जब बहस चल रही हो, वकील उपस्थित रहते हैं, यह बहुत ही सामान्य बात है कि न्यायाधीश टिप्पणी करते हैं. आप मौखिक अवलोकन (ओरल ऑब्जर्वेशन) की भी आलोचना नहीं कर सकते. सेवानिवृत्त न्यायाधीश एसएन ढींगरा ने 'गैरकानूनी' शब्द का प्रयोग किया, अमन लेखी ने 'अनुचित' शब्द का प्रयोग किया. यह भारतीय न्यायपालिका के लिए बहुत बड़ी क्षति है.
जस्टिस ढींगरा ने कहा कि अगर जज को इतना ही सरोकार था, तो उन्होंने अपनी राय लिखित में क्यों नहीं दी ?
क्योंकि जब भी कोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा होता है, तो वे सभी एंगल से मुक्त होते हैं. इसे ही मौखिक अवलोकन कहा जाता है. इसके बाद वह आदेश देते हैं.
लेकिन जस्टिस ढींगरा ने कहा कि उन्होंने अपने आदेश में यह नहीं लिखा कि देश में जो कुछ हो रहा है उसके लिए नूपुर शर्मा जिम्मेदार हैं. जस्टिस ढींगरा ने जो सवाल किया, वह यह था कि उन्होंने अपनी राय लिखित में क्यों नहीं दी ?
हां, उन्होंने लिखित में ऑर्डर नहीं दिया. आम तौर पर किसी भी अदालत की सुनवाई अलग होती है और आदेश अलग होता है. आप अदालत की कार्यवाही के लिए बाध्य नहीं कर सकते. कार्यवाही का अर्थ है तर्क, गवाहों को साझा करना और अन्य कार्यवाही. लेकिन आदेश कुछ अलग है.
न्यायमूर्ति ढींगरा ने कहा कि माननीय न्यायाधीश को अपने आदेशों में टिप्पणियों को लिखना चाहिए था. यह मौखिक क्यों था ?