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क्या भारत-चीन के लिए 'छिपा हुआ वरदान' है रूस-यूक्रेन युद्ध

वैसे तो भारत और चीन के बीच गलवान हिंसा के बाद ही स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है. दोनों देशों की सेनाएं हाड़ कंपा देने वाली ठंड में आमने-सामने है. लेकिन यूक्रेन युद्ध भारत और चीन, दोनों के लिए अच्छी खबर ला सकता है. क्योंकि इस युद्ध में रूस शामिल है, और भारत तथा चीन ने यूएन में एक जैसे स्टैंड लिए हैं. इसलिए उम्मीद की जा रही है कि चीन और भारत आगे भी समान स्टैंड लेते रहेंगे. इससे दोनों देशों के बीच नजदीकी संबंध भी बढ़ेंगे. यहां यह भी जानना जरूरी है कि चीन के विदेश मंत्री इस महीने के अंत तक भारत आ रहे हैं. लिहाजा, इस तरह के निष्कर्षों को नए पंख लग रहे हैं. ईटीवी भारत के वरिष्ठ पत्रकार संजीव बरूआ का विश्लेषण.

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पुतिन, मोदी, शी (फाइल फोटो)

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Published : Mar 16, 2022, 9:16 PM IST

नई दिल्ली : भारत और चीन के बीच संबंधों में उतार-चढ़ाव का सिलसिला अब भी जारी है. 22 महीने से दोनों देश सीमा पर आक्रामक रवैया अपनाए हुए हैं. हालांकि, यूक्रेन युद्ध से उपजी हुई परिस्थिति के अनुसार दोनों देशों के रूख में परिवर्तन आने के संकेत मिल सकते हैं. इस पृष्ठभूमि में चीनी विदेश मंत्री का भारत दौरा बहुत ही अहम माना जा रहा है. चीन के विदेश मंत्री वांग यी मार्च के अंत तक भारत आ सकते हैं.

ईटीवी भारत ने जब भारतीय विदेश मंत्रालय से चीन के विदेश मंत्री की भारत यात्रा की पुष्टि चाही, तो मंत्रालय ने इस पर कोई जवाब नहीं दिया. समझा जाता है कि चीनी विदेश मंत्री अपनी नेपाल यात्रा (26-27 मार्च) के बाद भारत आएंगे. सूत्र बताते हैं कि चीन नेपाल को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में भाग लेने के लिए प्रेरित करेगा.

अगर यह यात्रा होती है, तो लद्दाख सीमा पर जारी तनाव के रहते हुए चीन के किसी भी वरिष्ठ नेता की पहली भारत यात्रा होगी. हालांकि, दोनों मंत्रियों के बीच बहुपक्षीय प्लेटफॉर्म पर वर्चुअली या फिर आमने-सामने मुलाकात हो चुकी है.

यह यात्रा ऐसे समय में होगी, जब दोनों देशों की एक लाख से अधिक सेनाएं हाड़ कंपा देने वाली ठंड और अपर्याप्त ऑक्सीजन वाले इलाके में डंटे हुए हैं. यहां यह भी जानना जरूरी है कि गलवान संघर्ष के बाद दोनों देश रूस के प्रयास की बदौलत ही 10 सितंबर 2020 को बातचीत करने के लिए तैयार हुए थे. तब बहुपक्षीय संगठन एससीओ (शंघाई सहयोग संगठन) की मास्को में बैठक थी. 15 जून 2020 को दोनों देशों के बीच लंबे समय के बाद तनाव चरम पर पहुंच गया था. भारत के 20 जवानों की शहादत हो गई थी. चीन के भी चार से अधिक सैनिक मारे गए थे. तब से अब तक दोनों देशों के बीच 15 बार उच्च सैन्य स्तरीय बातचीत हो चुकी है. राजनयिक स्तर पर बातचीत का भी कोई नतीजा नहीं निकला.

दोनों देशों की सेनाओं का सीमा पर डटे रहना, दुनिया का नया फ्लैश प्वाइंट बन गया है. कभी भी कोई भी बड़ी घटना हो सकती है. हालांकि, ऐसा लगता है कि यूक्रेन संघर्ष ने स्थिति बदलनी शुरू कर दी है. इसके पीछे की वजह रूस है. लिहाजा दोनों देशों ने अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म, यूएन में, एक जैसे स्टैंड लिए हैं. भारत ने अमेरिकी प्रतिबंधों को धता बताते हुए रूस से एस-400 की खरीददारी को हरी झंडी दे दी. अब रूस से कच्चे तेल की खरीददारी को भी हामी कर दी है. अब तक इस तरह के स्टैंड के लिए चीन को ही जाना जाता रहा है.

रूस, दोनों ही देश यानी चीन और भारत का करीबी रहा है. भारत रूस से रक्षा और सैन्य सामग्री खरीदता रहा है. सैन्य अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में दोनों एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं. वहीं दूसरी ओर रूस और चीन के बीच कॉमन फैक्टर अमेरिका है. दोनों ही देशों की अमेरिका से प्रतिद्वंद्विता है. खासकर शीत युद्ध की समाप्ति के बाद चीन अमेरिका के खिलाफ अधिक आक्रामक रहा है.

रूस में भारत के राजदूत रह चुके और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके पीएस राघवन बताते हैं कि यूक्रेन युद्ध ने दुनिया के ताकतवर देशों के बीच नई शिफ्टिंग शुरू कर दी है. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद इन ताकतों के बीच कुछ सहमति बननी थी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ. दरअसल, जब भी इस तरह का कोई बड़ा बदलाव होता है, तो ताकतवर देशों के बीच ऐसी स्थिति बनती ही है. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो ने अपना विस्तार जारी रखा. सुरक्षा को लेकर कोई नई व्यवस्था बनी ही नहीं.

इसलिए ऐसे समय में जबकि यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस दुनिया में अलग-थलग पड़ता जा रहा है, संयुक्त राष्ट्र में उसे निंदा का सामना करना पड़ा, चीन और भारत ने रूस की निंदा करने से इनकार कर दिया. ऐसा लगता है कि रूस अकेला नहीं है, उसे चीन और भारत जैसे देशों का साथ मिल रहा है. अगर चीन और भारत के बीच संबंधों में थोड़ी भी गर्माहट आती है, तो अमेरिका की इंडो-पेसिफिक रणनीति, सिर्फ पेसिफिक बनकर रह जाएगी. इस बैठक के नतीजे दुनिया के ताकतवर देशों के बीच नई प्रतिस्पर्धा को जन्म देने की शक्ति रखता है. यह नई आर्थिक व्यवस्था को भी पैदा कर सकता है. यहां तक कि डॉलर के बढ़ते प्रभाव को भी थाम सकता है.

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