कुल्लू: देशभर में भले ही मंगलवार को विजयदशमी के साथ दशहरा त्योहार का समापन हो जाएगा, लेकिन हिमाचल प्रदेश में इसी दिन से अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव का आगाज होने जा रहा है. जहां पूरे देश में शारदीय नवरात्रि एक साथ मनाई जाती है, वहीं हिमाचल में कुल्लू अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव की परंपरा विजयदशमी के दिन शुरू होती है. इसके पीछे अलग-अलग मान्यता है. अपनी धार्मिक मान्यता, पारंपरिक संस्कृति और कई खास कारणों की वजह से इसे अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव का दर्जा मिला है. इस दशहरा उत्सव में देश-प्रदेश के साथ-साथ विदेशों से भी लोग शामिल होने आते हैं. ऐसे में आइए जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव की क्या धार्मिक मान्यता और महत्व है ?
कुल्लू में हर साल अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव का आयोजन: दशहरा का नाम लेते ही आपके जेहन में पश्चिम बंगाल और मैसूर में होने वाले दशहरा का नाम सबसे पहले आता होगा, लेकिन आपको बता दें कि हिमाचल के कुल्लू जिले में मनाया जाने वाला दशहरे को अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव का दर्जा मिला हुआ है. इस दशहरा में कुल्लू जिले के 300 से अधिक देवी-देवता शामिल होने के लिए आते हैं. वहीं, इस दशहरा उत्सव में कुछ ऐसे देवी-देवता हैं, जिनके आगमन के बिना दशहरा उत्सव की कल्पना नहीं की जा सकती. इन्हीं देवी-देवताओं में से एक हिडिंबा माता प्रमुख देवी हैं. देवी हडिंबा का दशहरा उत्सव में आगमन अति आवश्यक माना जाता है. ऐसी धार्मिक मान्यता है कि माता हिडिंबा के बिना दशहरा उत्सव का आयोजन नहीं हो सकता.
माता हिडिंबा से जुड़ी धार्मिक मान्यता और इतिहास:इतिहासकार सूरत ठाकुर का कहना है कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीराम ने रावण को विजयदशमी के दिन बाण मारा था, लेकिन उसकी मृत्यु 7 दिन बाद हुई थी. यही वजह है कि विजयदशमी से 7 दिनों तक कुल्लू में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव मनाया जाता है. कुल्लू दशहरा उत्सव के पहले दिन देवी अपने हरियानो के साथ राजमहल पहुंचती है. यहां माता की पूजा के बाद भगवान रघुनाथ को भी ढालपुर में लाया जाता है. माता दशहरा उत्सव के 7 दिनों तक ढालपुर के अपने अस्थाई शिविर में रहती हैं. इस दौरान हजारों की संख्या में भक्त देवी हिडिंबा के दर्शन के लिए यहां पहुंचते हैं. हिडिंबा माता की आशीर्वाद से देव महाकुंभ पूरी तरह से संपन्न होता है. वहीं, लंका दहन के दिन माता हिडिंबा का रथ सबसे आगे चलता है. इस दिन माता को अष्टांग बलि दी जाती है. इस दिन पुजारी माता हिडिंबा का गुर और घंटी धडच (धूप जलाने का पात्र) साथ लेकर जाते हैं. जैसे ही बलि की प्रथा पूरी होती है तो माता का रथ वापस अपने देवालय की ओर लौट जाता है. इसके साथ ही दशहरा उत्सव का भी समापन हो जाता है.
हिडिंबा देवी राज परिवार की कुलदेवी हैं: इतिहासकार डॉक्टर सूरत ठाकुर का कहना है कि देवी हिडिंबा को विहंग मणिपाल राज परिवार की कुल देवी भी हैं. उन्हें राज परिवार की दादी भी कहा जाता है. मान्यताओं के अनुसार देवी हिडिंबा ने राजा विहंग मणिपाल को एक बुढ़िया के रूप में दर्शन दिया था. इस दौरान राजा विहंग ने बुढ़िया को अपनी पीठ पर उठाकर पहाड़ी तक पहुंचाया था. जिससे खुश होकर माता हिडिंबा ने विहंग मणिपाल को अपने कंधे पर उठाया, उस दौरान मां हिडिंबा अपने असली स्वरूप में आग गईं और उन्होंने राजा कि कहा जहां-जहां तक तेरी नजर जा रही है. वहां तक की संपत्ति आज से तेरी होगी. उसके बाद माता हिडिंबा ने विहंग मणिपाल को पूरे इलाके का राजा घोषित किया. तभी से राज परिवार ने माता हिडिंबा को दादी का दर्जा दिया. दशहरा उत्सव में माता हिडिंबा की उपस्थिति इसलिए अनिवार्य मानी जाती है.