हैदराबाद : वर्ष 1942 में, महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) का आह्वान किया. इसका उद्देश्य भारत से 200 साल पुराने ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकना था. इस जन आंदोलन में लाखों युवा और आम हिंदुस्तानी शामिल हुए. देशभर में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह हुए. इस दौरान ओडिशा के कोरापुट क्षेत्र में आदिवासी क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला. यह विद्रोह कोरापुट के गुनुपुर से पापड़ाहांडी और मैथिली तक फैल गया.
क्रांतिकारी लक्ष्मण नायक के नेतृत्व में मैथिली थाने पर हमला, गुनुपुर के पास आदिवासी विद्रोह और पापड़ाहांडी में थुरी नदी के तट पर सैकड़ों आदिवासियों के बलिदान ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला कर रख दी.
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता कृष्णा सिंह का कहना है कि 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कोरापुट की भागीदारी काफी उल्लेखनीय थी. यह अद्वितीय घटना थी. मुझे लगता है कि कोरापुट की घटना से 1942 में ओडिशा में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हुई थी.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हजारों आदिवासियों ने बलिदान दिया, लक्ष्मण नायक जैसे क्रांतिकारी, जो जेल गए या अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया, उन्हें तो शहीद का दर्जा मिला. मगर अन्य के नाम इतिहास से गायब हो गए. आज लक्ष्मण नायक समेत अन्य शहीद क्रांतिकारियों को भी सरकारों द्वारा भुला दिया गया है.
हालांकि, लक्ष्मण नायक की जयंती और पुण्यतिथि पर अधिकारी, नेतागण और समाज के विभिन्न वर्गों के लोग वीर स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि देने उनके गांव तेंतुलिगुम्मा में पहुंचते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से इन दो दिनों के अलावा पूरे साल इस वीर क्रांतिकारी की किसी को भी याद नहीं आती. इन वीर शहीदों की पीढ़ियां भी इन्हें भुला चुकी हैं.
नेताओं द्वारा वादे तो किए जाते हैं लेकिन विकास आज भी यहां तक नहीं पहुंच पाया है. शहीद लक्ष्मण नायक की स्मृति के रूप में मशहूर तेंतुलिगुम्मा में उनके आवास के प्रति सरकार की उदासीनता भी हैरान करने वाली है.