हैदराबाद : दुनिया के कई अन्य देशों की लाख कोशिशों के बावजूद रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई. दोनों देशों ने नुकसान को लेकर अलग-अलग दावे किए हैं. जाहिर है, रूस की सैन्य ताकत के आगे यूक्रेन कहीं नहीं टिकता है. हालांकि, नाटो ने यूक्रेन के साथ हमदर्दी दिखाई है. नाटो के सदस्य देश इस पर शुक्रवार को बैठक करेंगे और यह निर्णय लेंगे कि यूक्रेन की किस प्रकार से मदद की जाए. आज नाटो ने साफ किया है कि अब तक उनकी सेना यूक्रेन में दाखिल नहीं हुई है. वैसे भी यूक्रेन अब तक नाटो का सदस्य नहीं बना है.
अब ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर रूस और यूक्रेन के बीच आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों. क्या इस संघर्ष को टाला जा सकता था. क्या रूस ने अति-आत्मविश्वास में यूक्रेन पर हमला कर दिया. या फिर रूस की कोई मजबूरी है, जिसकी वजह से उसने यूक्रेन पर हमला कर दिया. यह बात सबको पता है कि यूक्रेन यूएसएसआर (सोवियत संघ) का हिस्सा रह चुका है. लेकिन 1990 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद यूक्रेन समेत कई देशों ने रूस का साथ छोड़ दिया. तब रूस की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई थी. लेकिन रूस ने धीरे-धीरे कर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत की. उसकी सैन्य ताकत तो पहले से जगजाहिर थी. 1990 के बाद भी रूस लगातार अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाता रहा.
इस बीच अमेरिका समेत रूस विरोधी देशों का संगठन नाटो का विस्तार लगातार जारी रहा. नाटो यानी उत्तर अटालांटिक संधि संगठन ( North Atlantic Treaty Organization). यह अमेरिका और यूरोपीय देशों का संगठन है. इस संगठन की स्थापना 1949 में हई थी. फिलहाल इस संगठन के 30 देश सदस्य हैं. नाटो का मकसद अपने सदस्यों को राजनैतिक और सैन्य जरियों से सुरक्षा देना है. नाटो यह मानता है कि यदि उसके किसी एक सदस्य देश पर हमला किया जाता है, तो यह अन्य देशों पर भी हमला माना जाता है. इसलिए ऐसे हालात में सदस्य देश एक दूसरे की मदद करते हैं.
अमेरिका नाटो के जरिए यूरोपीय देशों, खासकर पूर्वी यूरोप के देशों को इस संगठन में जोड़ता रहा है. पूर्वी यूरोप रूस से भौगोलिक रूप से पास है. अमेरिकी रणनीतिकारों की मंशा है कि यूक्रेन भी नाटो का सदस्य बन जाए. यदि ऐसा होता है, तो नाटो रूस के करीब आ जाएगा. आप दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि अमेरिकी सैन्य ताकत रूस की सीमा के करीब पहुंच जाएगी. ऐसे में रूस यह कभी नहीं चाहेगा कि अमेरिकी ताकत उसके नजदीक पहुंचे. यूक्रेन खुद भी चाहता है कि वह नाटो का सदस्य बने. विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि यूक्रेन किसी संगठन का हिस्सा बनता है, यह यूक्रेन का हक है. उनकी जनता यह तय करेगी. किसी दूसरे देशों को इसमें रोड़े अटकाने का कोई हक नहीं है.
पर, रूस इस बात से आशंकित है. इसलिए उसने 2008 में जॉर्जिया के खिलाफ युद्ध छेड़ा. उसके दो इलाकों अबखाज और ओसेशिया को स्वंत्रत घोषित कर वहां अपनी सेनाओं को तैनात कर दिया. 2014 में क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. क्रीमिया में रूस समर्थित आबादी रहती है. इसी तरह से यूक्रेन के पूर्वी इलाके में स्थित डोनत्सक और लुगांस्क रूसी समर्थक हैं. अभी रूस ने यहां पर अपनी सेना भेज दी है. यहां रहने वाले नागरिक पूरी तरह से रूस के समर्थक हैं. रूस ने इसे स्वायत्त क्षेत्र घोषित कर दिया है. इसका मतलब है कि इन इलाकों पर अब यूक्रेन का अधिकार नहीं रह जाएगा. अमेरिका मानता है कि यह रूस की मनमानी है. यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की 2019 से ही नाटो में शामिल होने की कोशिश में जुटे हुए हैं. रूस इसे कभी स्वीकार नहीं कर पाया.
यूक्रेन का पड़ोसी देश बेलारूस भी रूस का ही समर्थक है. रूस ने सैन्य युद्ध अभ्यास के नाम पर यहां भारी संख्या में अपनी सेनाओं की पहले ही तैनाती कर दी थी. रूस की आशंका ये भी है कि एस्टोनिया,लातविया और लिथुआनिया में नाटो की आड़ में अमेरिका ने अपने हजारों सैनिकों को तैनात कर रखा है. इन देशों की सीमाएं सीमाएं रूस से लगती हैं.
गैस की 'राजनीति' में पिछड़ा अमेरिका
संघर्ष की दूसरी सबसे बड़ी वजह है गैस. आपको बता दें कि 2014 में पहली बार यूक्रेन में एक ऐसी सरकार बनी, जिसने रूस विरोधी रूख अपना लिया. इसी गुस्से में रूस ने क्रीमिया पर हमला कर उसे अपने में मिला लिया था. दरअसल, रूस यूरोप के कई देशों को अपना गैस बेचता है. उन देशों तक गैस पहुंचाने के लिए रूस को पाइप बिछानी पड़ी थी. इसमें बड़ा निवेश लगता है. साथ ही जिन देशों से होकर पाइप गुजरती है, रूस उसे फीस देता है. इसे ट्रांजिट फीस कहते हैं. रूसी पाइप लाइन का बड़ा हिस्सा यूक्रेन से होकर गुजरता है. एक अनुमान है कि रूस हर साल यूक्रेन को 33 बिलियन डॉलर भुगतान करता रहा है. लेकिन 2014 के बाद से रूस ने नई गैस पाइप लाइन बिछाने का निर्णय लिया. इस बार यह लाइन यूक्रेन से होकर नहीं गुजरती है. इस नई गैस पाइप लाइन को नॉर्ड स्ट्रीम 2 का नाम दिया गया है.
इसके तहत पश्चिम जर्मनी तक 1200 किमी लंबी गैस पाइपलाइन बिछाई गई. यह बाल्टिक महासागर से होकर गुजरती है. 10 बिलियन डॉलर इसकी लागत बताई गई है. जर्मनी को ऊर्जा जरूरत के लिए गैस चाहिए. रूस ने जर्मनी को सस्ते दाम पर गैस देने का निर्णय कर लिया. इस पाइप लाइन को रूस की सरकारी कंपनी गैजप्रॉम ने बिछाया है. अभी गैस की सप्लाई शुरू नहीं की गई है. कहा जाता है कि पूरा यूरोप ही तेल और गैस के लिए रूस पर निर्भर है.