हैदराबादः भारतीय दवा उद्योग विश्व भर में सस्ते वैक्सीन और जेनेरिक दवाइयां बनाने के लिए जाना जाता है. दवाओं के उत्पादन में वॉल्यूम के आधार पर भारत का विश्व में तीसरा स्थान है. 2021-22 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारतीय दवा उद्योग 9.43 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है. भारत से बड़े पैमाने पर 200 देशों को जेनेरिक दवाइयों का निर्यात किया जाता है. इसके बाद भी भारत में जेनेरिक दवाइयों का उपयोग कम है. लोगों के बीच जेनेरिक दवाइयों के प्रति भ्रांतियां, डॉक्टरों की ओर से जेनेरिक मेडिसिन को कम सपोर्ट और मार्केट में सामान्य रूप से इसके स्टोर की संख्या कम होना बड़ी समस्या है.
जेनेरिक दवाइयां क्या हैं और यह ब्रांडेड दवाइयों से किस तरह अलग होते हैं -किसी भी रोग को कैसे ठीक किया जाए, इसके लिए दवा कंपनियां अनुसंधान के बाद एक फॉर्मूला तैयार करती हैं. इस फॉर्मूले से एक केमिकल (साल्ट) बनाया जाता है. बाजार की भाषा में इस केमिकल को ही दवा बोलते हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां इस केमिकल को नया नाम प्रदान करती हैं. और उसे उसी नाम से बाजार में उतारा जाता है. लेकिन उस साल्ट का जेनेरिक नाम बदलता नहीं है. बहुत सारी कंपनियां इसे इसी नाम (जेनेरिक नाम) से बनाती हैं. इसे ही जेनेरिक दवा कहते हैं. इस साल्ट का नाम विशेष समिति द्वारा तय किया जाता है. जेनेरिक नाम उसके कंपोजिशन और किस बीमारी के लिए बनाया गया है, उस पर निर्भर करता है. और भी आसान भाषा में समझना चाहें तो आप यह कह सकते हैं कि जेनेरिक दवाइयां कम कीमत पर ब्रांडेड दवाइयों का वर्जन हैं. वैसे, ब्रांडेड कंपनियों का पेटेंट समाप्त होने के बाद वह जेनेरिक की श्रेणी में चली आती हैं. विकसित देशों में जहां जेनेरिक मेडिसिन 89 फीसदी स्वीकार की जाती हैं, वहीं भारत में यह शुरुआती स्तर पर है. जबकि जेनेरिक दवाइयों की कीमत ब्रांडेड के मुकाबले काफी कम होती हैं. जेनेरिक दवाइयों के निर्माताओं की ओर से ब्रांडिंग पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है, इसलिए इसका प्रोडक्ट और लुक सामान्य होता है. यह भी सामान्य रुप से एक्सपायरी डेट पर ही खराब होता है. यह दवा भी उतनी ही प्रभावी होती है, जितना ब्रांडेड.
ब्रांडेड दवाइयां महंगी क्यों होती हैं -दवाइयों को बनाने के लिए रिसर्च एंड डेवलपमेंट (Research and Development) पर मोटी रकम खर्च होती है. शोध सफल होने पर तैयार दवाइयों का पेटेंट कराया जाता है. पेटेंट अधिकार हासिल करने वाली कंपनियां दवाइयों की कीमतें निर्धारित करती हैं. कीमत निर्धारण के समय कंपनियां प्रोडक्ट लागत, मार्केटिंग और आरएनडी पर खर्च राशि का ध्यान रखती हैं. इससे दवाइयों की कीमतें काफी बढ़ जाती हैं. जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियों के सामने इसकी लागत लगभग ना के बराबर होती हैं. वे रिसर्च नहीं करती हैं. लैब परीक्षण नहीं होता है. फील्ड ट्रायल भी नहीं होता है. मार्केटिंग पर बहुत कम पैसे खर्च करती हैं.
डॉक्टरों पर खर्च होती है मोटी रकम -मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अमूमन ब्रांडेड दवा कंपनियों की ओर से अपने सेल्स को बढ़ाने के लिए डॉक्टरों व हॉस्पीटल्स को 20-25 फीसदी तक की राशि (यह अनुमान पर आधारित है) बोनस, गिफ्ट, टूर पैकेज, बच्चों की पढ़ाई सहित अन्य रूप में दिया जाता है. इसके बाद कंपनियों की ओर से मार्केटिंग पार्टनर्स जैसे मेडिकल स्टोर, थोक विक्रेता और सीएनएफ (Clearing and Forwarding Agent) को सप्लाई चेन के लिए भुगतान किया जाता है. इसमें कंपनियों को 20-25 फीसदी खर्च करना पड़ता है. जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियां ऐसा नहीं करती हैं.
जेनेरिक दवाइयां सस्ती क्यों होती हैं -किसी भी दवा को बनाने वाली कंपनियों के पास पेटेंट अधिकार 17 से 20 साल के लिए होता है. इसके बाद कोई भी कंपनी उस दवा का उत्पादन कर सकती है. आरएनडी पर लागत नहीं होने के कारण जेनेरिक दवाइयों की लागत कम हो जाती हैं. इसके बाद जेनेरिक दवा कंपनियां मार्केटिंग और सप्लाई चेन पर बहुत ज्यादा खर्च नहीं करती हैं. इससे भी लागत कम हो जाती हैं. कुछ दवाइयों पर शुरू से ही पेटेंट नहीं होता है, इस वजह से वे सस्ती होती हैं और यह जेनेरिक रूप में भी उपलब्ध होती हैं.
आप एक उदाहरण से समझिए. 'ए' नाम की एक कंपनी ने एक बीमारी के लिए कुछ वैज्ञानिकों को अनुसंधान कार्य में लगाया. अनुसंधान के लिए लैब स्थापित करनी होती है. वहां पर मशीन लगाने पड़ेंगे. एक समय (यह महीने में भी हो सकता है, सालों में भी हो सकता है) के बाद अनुसंधानकर्ता फॉर्मूले को तैयार करते हैं. उसके बाद उसका परीक्षण किया जाता है. बाजार में उतरने से पहले बड़ी कंपनियां उस साल्ट को एक ब्रांड नाम दे देती हैं. वे उसका मार्केटिंग करती हैं. इन सारी प्रक्रियाओं में पैसा लगता है. जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियां इन प्रक्रियाओं में निवेश नहीं करते हैं. उन्हें फॉर्मूला मिल जाता है, वे दवा में लगने वाले इनग्रेडिएंट को बाजार से खरीदती हैं और दवा तैयार कर लेती हैं. जाहिर है, ये दवाएं सस्ती होंगी हीं.
ब्रांडेंड दवाओं की तरह ही प्रभावी होती हैं जेनेरकि दवा - जेनेरिक दवाएं बिलकुल ब्रांडेड दवाओं की तरह ही होती हैं. यह भी समान रूप से प्रभावी होता है. इसमें भी वही अवयव होते हैं, जो ब्रांडेड दवाओं में यूज होते हैं. हां, कई बार दवा बनाने वाली कंपनियां अगर उनके अवयवों में कटौती कर दें, तो दवा कम असरदार हो सकती हैं. लेकिन यह तो दोनों ही, ब्रांडेड और जेनेरिक, कंपनियों के लिए सही हैं. लोगों के पास यह एक भ्रम है कि जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड की तरह प्रभावकारी नहीं होती हैं.
कहां खुला था पहला जेनेरिक मेडिसिन स्टोर -भारत सरकार की ओर से 23 अप्रैल 2008 को सस्ते जेनेरिक मेडिसिन आम लोगों को उपलब्ध कराने का निर्णय लिया गया था. देश का पहला जन औषधि केंद्र नवंबर 2008 में पंजाब के अमृतसर में खोला गया था. बाद में जन औषधि केंद्र का नाम प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र कर दिया गया. हाल के वर्षों में प्रधान मंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (Pradhan Mantri Bhartiya Janaushadhi Pariyojana) के तहत देश भर में प्रधान मंत्री जन औषधि केंद्रों की संख्या बढ़ायी जा रही है. 31 दिसंबर 2021 तक देश भर में 8640 औषधि केंद्र खोले गये हैं. वित्तीय वर्ष 2021-22 में दिसंबर तक 652.67 करोड़ रुपये की जेनेरिक दवाइयों की बिक्री देश भर में हुई.
कैसे ढूंढें जेनेरिक मेडिकल शॉप -देश में दिसंबर 2022 तक एक हजार के करीब प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र (Pradhan Mantri Jan Aushadhi Kendra-PMJAK) खोले जा चुके हैं. इन केंद्रों पर 1451 दवाइयों के अलावा 240 सर्जिकल उपकरण भी उपलब्ध हैं. देश भर में मेडिकल कॉलेज, जिला और अनुमंडलीय अस्पताल स्तर पर प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र खोले जा रहे हैं. आम लोगों की सुविधा के लिए जन औषधि सुगम एप (Jan Aushadhi Sugam-PMBI) विकसित किया गया है. गूगल प्ले स्टोर पर PMBI उपलब्ध है. इसके माध्यम से कोई व्यक्ति पता कर सकता है की उनके घरों के आसपास कहां-कहां प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र हैं. उन्हें जिन दवाइयों की जरूरत है तो वह वहां स्टॉक में है या नहीं, इसकी जानकारी एप पर मिल जाती है. इसकी कीमत सहित अन्य जानकारी एप पर उपलब्ध है. जन औधषि केंद्रों की निगरानी भारत सरकार की ओर से की जाती है.