तिनरुवनन्तपुरम : केरल में विधानसभा चुनाव होना है. वाम गठबंधन सत्ता में है. वाम दल फिर से सत्ता में लौटेगा या कांग्रेस को मौका मिलेगा, इसे लेकर पूरे देश की नजर केरल पर बनी हुई है. कांग्रेस के लिए यह प्रतिष्ठा का विषय है. पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी यहीं से सांसद हैं. राज्य में भाजपा बहुत बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं है, लेकिन पार्टी की रणनीति कांग्रेस को पीछे कर खुद को विपक्ष के तौर पर खड़ा करने की है.
1957 से लेकर 1969 तक केरल में कई सरकारें आईं, लेकिन वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं. इसमें ईएमएस नंबूदरीपाद से लेकर सी अच्युत मेनन तक की सरकारें शामिल हैं.
मेनन सरकार ने पहली बार पूरा किया था कार्यकाल
1970 में सी अच्युत मेनन की सरकार ने पहली बार राज्य में अपना कार्यकाल पूरा किया था. तब कांग्रेस और सीपीआई का गठबंधन था. 1975 में आपातकाल की घोषणा के कारण उनकी सरकार 1977 तक चलती रही. उसके बाद के चुनाव में भी इसी गठबंधन को जनता ने मौका दिया.
1982 के बाद से राज्य में समीकरण बदल गया. तब से कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट बारी-बारी से सत्ता में आ रहा है. कोई भी गठबंधन लगातार लौटा नहीं है.
नेहरू सरकार ने पहली चुनी हुई वाम दल की सरकार को किया था बर्खास्त
केरल का गठन एक नवंबर, 1956 को हुआ था. 1957 में पहला चुनाव हुआ. ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में वाम दल (सीपीआई) की सरकार बनी. हालांकि, सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. लिब्रेशन स्ट्रगल नाम से एक आंदोलन चला. इसमें कई धार्मिक और सांप्रदायिक संगठनों ने हिस्सा लिया. राज्य में कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 31 जुलाई 1959 को राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया. केरल की पहली वाम सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी.
1960 के चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता पीटी पिल्लई के नेतृत्व में सरकार बनी. कांग्रेस सहयोगी पार्टी के तौर पर शामिल थी.
26 सितंबर 1962 को पीटी पिल्लई को पंजाब का गवर्नर बना दिया गया. वे वहां चले गए. कांग्रेस नेता और उप मुख्यमंत्री आर शंकर को सीएम बनाया गया.
10 सितंबर 1964 को कांग्रेस के ही एक धड़े ने उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया. विपक्ष के सहयोग से यह प्रस्ताव पारित हो गया. आर शंकर की सरकार गिर गई. उसके बाद अगले एक साल तक केरल में राष्ट्रपति शासन लगा रहा.
1965 के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला. राज्य में अगले दो सालों तक राष्ट्रपति शासन जारी रहा.
सीपीआई का विभाजन, केरल पर भी पड़ा असर
1967 में सीपीआई का विभाजन हो गया. विभाजन के बाद सीपीएम नई पार्टी बनी. वाम गठबंधन को बहुमत मिल गया. ईएमएस की फिर से सरकार बनी.
हालांकि, सीपीआई और सीपीएम के बीच मतभेद जारी रहा. सीपीआई ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. ईएमएस की सरकार गिर गई.
सरकार गिरने के बाद सीपीआई ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर लिया. कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देने का फैसला किया. एक नवंबर 1979 को सी अच्युत मेनन मुख्यमंत्री बने. लेकिन तीन अगस्त 1970 को उन्होंने बहुमत खो दिया. उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया.
1970 के चुनाव में कांग्रेस, सीपीआई, मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा. उनकी जीत हुई. सीपीआई नेता अच्युत मेनन फिर से सीएम बन गए. और इस बार उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा भी किया.
1975 में जब उनका कार्यकाल खत्म हो रहा था, तभी आपातकाल की घोषणा कर दी गई. इस कारण सभी चुनाव टाल दिए गए थे. अच्युत मेनन 1977 तक सीएम बने रहे. 1977 के चुनाव में एक बार फिर से वही गठबंधन चुनाव में उतरा. उन्हें बहुमत भी हासिल हुआ. आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जहां कांग्रेस हर जगह हार रही थी, केरल में उनकी पार्टी सत्ता में लौट गई. 1977 में सीएम भी कांग्रेस का ही बना.
सीपीआई-सीपीएम फिर आए साथ
राजनीतिक परिस्थिति फिर से बदली. भठिंडा में सीपीआई कांग्रेस की बैठक में वाम दलों के बीच फिर से साथ आने का निर्णय लिया गया. सीपीआई और सीपीएम साथ-साथ आ गए. परिणामस्वरूप सीपीआई ने कांग्रेस सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. कांग्रेस सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी.
एके अंटोनी की कांग्रेस से बगावत
1980 के चुनाव में कांग्रेस के एक गुट (एके अंटोनी) ने वाम फ्रंट ज्वाइन कर लिया. वाम फ्रंट की सरकार बन गई. ईके नयनार सीएम बने. हालांकि, अंटोनी फिर से कांग्रेस में लौट गए. उनके गुट ने वाम दलों से अपना समर्थन भी वापस ले लिया.20 अक्टूबर 1981 को नयनार ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया.