हैदराबाद :केंद्रीय जांच ब्यूरो एक 'प्रतिष्ठित' संगठन है. जिस पर प्राधिकरण और बल के साथ मिलकर भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन अब वह खुद 'भ्रष्टाचार' के आरोपों से घिर रहा है! यह नफरत करने वालों द्वारा लगाया गया कोई घिनौना इल्जाम नहीं है, बल्कि केंद्रीय जांच एजेंसी ने जो कड़वी सच्चाई खुद सत्यापित की है, उसी के आधार पर यह कहा जा रहा है.
आठ पन्नों की एफआईआर में सीबीआई ने स्पष्ट किया कि उनके कुछ अधिकारी बैंक घोटालों के मामले में आरोपों का सामना करने वाली कुछ कंपनियों के साथ हाथ मिला रहे थे. साथ ही भ्रष्ट तरीके अपनाकर उनका पक्ष ले रहे थे. इस मामले में सीबीआई के चार कर्मियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किए गए हैं. इनमें दो डीएसपी और कुछ निजी व्यक्तियों सहित वकील भी शामिल थे. संक्रांति के दिन सीबीआई ने दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ और कानपुर सहित 14 स्थानों पर अपने कार्यालयों में छापे मारे और व्यापक निरीक्षण किया. सीबीआई इंस्पेक्टर कपिल धनखड़ पर कई लोगों को महत्वपूर्ण सूचनाएं पास करने के लिए शीर्ष अधिकारियों तक 16 लाख रुपये की किस्त प्राप्त करने का आरोप है. दो डीएसपी जो वकील से 15 लाख रुपये और मीडिएटर से डील कर रहे थे, यह भ्रष्टाचार की गहरी जड़ें जमाए जाने का उदाहरण है. लाखों रुपये के बदले जिस तरह से राष्ट्र की प्रतिष्ठा को धूमिल किया गया है और मामलों की जांच और परीक्षण को प्रभावित करने की कोशिश की गई है, वह चौंकाने वाली है.
सरकार के पिंजरे का तोता 'सीबीआई'
ऑल फूल्स डे (1 अप्रैल) को सत्ताइस साल पहले गठित केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को केंद्र सरकार के एक उपकरण के रूप में हमेशा अपमानित किया जाता है. इंदिरा गांधी के शासन काल में इसे अत्यधिक भ्रष्ट किया गया था. कई बार अदालतों ने टिप्पणी की है कि यह केंद्र सरकार के पिंजरे का तोता बनकर रह गया है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि केंद्रीय जांच ब्यूरो को राजनीतिक हस्तक्षेप से परे एक मजबूत जांच एजेंसी के रूप में उभरना चाहिए. इसे अपने काम से सभी की प्रशंसा अर्जित करनी चाहिए. जबकि इसमें सुधार की हमेशा गुंजाइश बनी रहती है. कई मामले ऐसे हैं जो राजनीतिक दबाव और अन्य कारणों से कहीं खो से गए. इस वजह से शंकाएं बढ़ जाती हैं. इनके पीछे नेतृत्व की भागीदारी के अलावा मौजूदा भ्रष्टाचारी आचरण मुख्य कारण है.
ईमानदारी व निष्पक्षता का दावा कितना सच
सीबीआई जो अपने राजनीतिक आकाओं की लाइन को बहुत अच्छी तरह से जान जाती है, ने बार-बार बेशर्मी से यह साबित किया है कि वह 'स्पिनलेस' है. लगभग दो साल पहले आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के बीच गर्मागर्म बहस ने पूरे संगठन को हिलाकर रख दिया था. उस समय अस्थाना एक विशेष जांच दल का नेतृत्व कर रहे थे जो मोइन कुरैशी नामक एक मांस व्यापारी के खिलाफ विभिन्न आरोपों की जांच कर रहा था. सीबीआई ने आलोक वर्मा की अध्यक्षता में एक प्राथमिकी दर्ज की थी जो कुछ महीनों में सेवानिवृत्त होने वाले थे. संक्षेप में भ्रष्टाचार के मामले में मुख्य अपराधी कोई और नहीं, बल्कि अस्थाना ही थे. जो विशेष निदेशक की क्षमता के आधार पर शासन कर रहे थे. सतीश नामक एक व्यक्ति की गवाही ने कहा कि हालांकि उसने सीबीआई के जाल से निकलने के लिए 3 करोड़ रुपये का भुगतान किया, लेकिन सीबीआई के अधिकारी अभी भी उसे परेशान कर रहे थे. जिसने उन दिनों एक बड़ी हलचल पैदा कर दी थी. पिछले मार्च में सीबीआई द्वारा क्लीन चिट के आधार पर कि राकेश अस्थाना उस मामले में दोषी नहीं थे, सीबीआई स्पेशल कोर्ट ने मामले को छोड़ दिया और इस तरह से आधिकारिक तौर पर संघर्ष थम गया. आरोप है कि रिश्वतखोरी हो रही थी और यह भी कि अधिक रिश्वत की मांग की जा रही थी. फिर भी कोई दोषी नहीं पाया गया!