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क्या शराब पीना मौलिक अधिकार है ? अब शराबबंदी पर क्यों उठे सवाल ?

क्या शराब पीना एक अधिकार है ? ये सवाल शराबबंदी कानून को लेकर गुजरात में उठ रहा हैं. शायद इस खबर को पढ़ने के बाद आपके मन में भी ये सवाल उठने लगे क्योंकि अर्जी हाईकोर्ट ने स्वीकर कर ली है और अब सुनवाई की तैयारी है. इस शराब पीने के अधिकार को लेकर हर सवाल के जवाब के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर

शराब
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Published : Aug 27, 2021, 4:43 PM IST

हैदराबाद: क्या शराब पीना आपका अधिकार है ? पहली बार में सवाल भले अटपटा सा लगे लेकिन ये सवाल फिलहाल चर्चा का विषय है. जिन राज्यों में शराबबंदी है, उन राज्यों में रहने वाले लोगों में इसकी दिलचस्पी और बढ़ जाएगी, जब उन्हें पता लगेगा कि देश का एक हाइकोर्ट शराबबंदी के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है. इस सवाल के साथ शराबबंदी को लेकर तमाम सवालों के जवाब जानने से पहले जानते हैं कि

आखिर माजरा क्या है ?

दरअसल निजता के अधिकार (Right to Privacy) को आधार बनाकर गुजरात हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी. जिसमें शराबबंदी (liquor ban) कानून को निजता के अधिकार का हनन बताया गया था. कोर्ट इस याचिका पर सुनवाई करे या नहीं ? इसे लेकर हाईकोर्ट में बहस हुई. इस दौरान गुजरात सरकार की तरफ से कहा गया कि यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर होनी चाहिए. लेकिन हाइकोर्ट ने गुजरात सरकार की अर्जी को खारिज कर दी और शराबबंदी कानून के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया. अगली सुनवाई 12 अक्टूबर को होगी.

क्या शराब पीना आपका अधिकार है ?

याचिका में क्या कहा गया है ?

शराबबंदी के खिलाफ दायर याचिका में कहा गया है कि घर की चारदीवारी में लोग क्या खाते हैं, क्या पीते हैं. इस पर सरकार रोक नहीं लगा सकती या सरकार ये तय नहीं कर सकती है. अर्जी में यह भी सवाल उठाया गया है कि जिस राज्य में शराबबंदी नहीं है अगर कोई वहां से शराब पीकर आता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई कितनी जायज है.

याचिकाकर्ता के मुताबिक शराबबंदी का उद्देश्य क्या है, इसका जिक्र कानून में नहीं है. हालांकि कोर्ट में सरकार की ओर से इसे जनता की सेहत से जोड़कर बताया गया. एडवोकेट जनरल ने बताया कि गुजरात की करीब 7 करोड़ आबादी के बीच 21 हजार लोगों को शराब का परमिट दिया गया है, वहीं विजिटर और टूरिस्ट परमिट जैसे अस्थायी परमिट 66 हजार लोगों को दिए गये हैं.

शराबबंदी के खिलाफ याचिकाओं पर गुजरात हाईकोर्ट करेगा सुनवाई

निजता, समानता और शराब

दरअसल गुजरात हाइकोर्ट में ऐसी कई याचिकाएं दायर हैं, जो राज्य में शराबबंदी यानि शराब बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी लगाने वाले प्रॉहिबिशन एक्ट 1949 को चुनौती देती हैं. इनमें शराबबंदी को समान अधिकार और निजता का हनन बताया गया है.

याचिकाओं के जवाब में राज्य सरकार ने कहना है कि साल 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने शराबबंदी कानून को कायम रखा था. जिसपर याचिकाकर्ताओं की तरफ से कहा गया कि राइट टु प्राइवेसी यानि निजता का अधिकार 1951 में नहीं था, इसे सुप्रीम कोर्ट ने साल 2017 में दिया है और ये शराबबंदी निजता के अधिकार का हनन करती है.

क्या है निजता का अधिकार ?

साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों वाली संविधान पीठ सर्वसम्मति से निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया था. पीठ ने कहा था कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है. इसी निजता के आधार पर गुजरात हाईकोर्ट में शराबबंदी के खिलाफ याचिका दायर की गई है. जिसमें कहा गया है कि निजता के अधिकार के तहत घर की चारदीवारी में बैठकर शराब पीने का अधिकार दिया जा सकता है.

क्या है शराबबंदी कानून ?

1947 में देश की आजादी के बाद बॉम्बे प्रोहिबिशन एक्ट 1949 लाया गया था. तब गुजरात बॉम्बे स्टेट की हिस्सा हुआ करते थे. इस कानून के सेक्शन 12 और 13 के तहत शराब बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी थी. फिर 1 मई 1960 को भाषा के आधार पर बॉम्बे स्टेट दो राज्यों गुजरात और महाराष्ट्र में बंट गया. गुजरात ने इस कानून को तब से ही लागू रखा है. 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था राज्य सरकार के शराबबंदी के फैसले को सही माना था और इसे राज्य का अधिकार बताया.

याचिका में शराबबंदी को निजता और समानता के अधिकार का हनन बताया गया

देश के जिन राज्यों में शराबबंदी लागू है वहां दंडनीय अपराध होने के नाते गैरकानूनी तरीके से शराब बनाने और बिक्री पर 10 साल की कैद, 5 लाख रुपये जुर्माने जैसे कठोर दंड का प्रावधान है.

क्या शराब पीना मौलिक अधिकार है ?

केरल हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने इससे पहले शराब पीने को मौलिक अधिकार नहीं माना. शराब की बिक्री के फैसले को राज्य सरकार का अधिकार क्षेत्र कहा गया है. गुजरात का उदाहरण लें तो जिस कानून के तहत शराब बनाने, बिक्री और बेचने पर बैन है वो कानून राज्य को अधिकार देता है कि वो शराब की बिक्री को अपने हिसाब से नियंत्रित करे.

बिहार सरकार ने साल 2016 में शराब बेचने और पीने पर पाबंदी लगाई. बिहार हाइकोर्ट में कानून को चुनौती दी गई और कोर्ट ने कानून के विरोध में फैसला सुनाया. साल 2017 में केरल हाइकोर्ट ने एक मामले में कहा कि शराब पीना निजता के अधिकार का हिस्सा हो सकता है लेकिन इस आधार पर सरकार को शराबबंदी के अधिकार से नहीं रोका जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने खाने-पीने के फैसले को संविधान के आर्टिकल 21 के तहत अधिकार माना है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि अगर नागरिकों को किसी अधिकार से वंचित रखा जा रहा है तो सरकार के पास उसका मजबूत आधार होना चाहिए. सरकार के उस फैसले में जनता और देश की भलाई का विचार होना चाहिए. शराबबंदी लागू करने वाली सरकारें इसे हमेशा जनता की सेहत और समाज की भलाई से जोड़ती हैं. अब देखना होगा कि इस बार गुजरात हाईकोर्ट इस मामले में क्या फैसला सुनाता है.

भारत में शराब से जुड़े आंकड़े

बहुत पेचीदा है शराबबंदी का विषय

गुजरात राज्य की स्थापना के वक्त से ही वहां शराबबंदी कानून लागू है. इसके अलावा बिहार और मिजोरम में भी शराब बेचना और पीना गैरकानूनी है. लेकिन शराबबंदी बहुत ही पेचीदगियों से भरा है, जिसे लेकर गुजरात हाइकोर्ट में दायर याचिकाओं में भी उठाया गया है. मसलन शराबबंदी के तहत ही गुजरात में बड़े होटलों में शराब परोसने से लेकर विजिटर या पर्यटकों के लिए अस्थायी परमिट की सुविधा है. इसे याचिकाकर्ता ने समानता के अधिकार का हनन बताया है. पड़ोसी राज्य जहां शराबबंदी नहीं है वहां से शराब पीकर आने वाले को भी इस कानून के दायरे में लाने पर भी सवाल उठाए गए हैं.

सरकारों की तरह कुछ जानकार शराब को स्वास्थ्य के लिए खराब होने के साथ क्राइम ग्राफ और घरेलू हिंसा के बढ़ने का जिम्मेदार भी मानते हैं. इसी दलील पर शराबबंदी की बुनियाद भी टिकी हुई है. लेकिन फिर सवाल उठता है कि कुछ गिने चुने राज्यों में ही शराबबंदी क्यों लागू है और वो भी पूरी तरह से क्यों लागू नहीं है. इस तरह की पेचीदगियों से ये विषय घिरा हुआ है.

राज्य सरकारों के लिए शराब की बिक्री कमाई के सबसे बड़े जरियों में से एक होती है. शराबबंदी का सवाल उठते ही विरोध करने वाले इस विषय को उठाते हैं. कुछ जानकार मानते हैं कि शराबबंदी का फैसला लोगों को दूसरे नशों की तरफ भी ढकेल सकता है. और सबसे बड़ा सवाल जो निजता को लेकर उठाया गया है. क्योंकि 1951 में सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले को शराबबंदी के पक्ष में माना जा रहा है तब निजता का अधिकार नहीं था.

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