पटना :बिहार सरकार खेल और खिलाड़ियों के विकास के लाख दावे करे लेकिन हकीकत ( Poor condition of sports and players in Bihar) कुछ और ही बयां कर रही है. दरअसल, पटना के रहने वाले मंसूर आलम खो-खो के उम्दा खिलाड़ी हैं. वह कई बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और प्रदेश को रिप्रेजेंट कर अपना परचम लहरा चुके हैंं. लेकिन सरकार से कोई मदद नहीं मिलने की वजह से आज वो पंक्चर बनाकर गुजर बसर कर रहे हैं. ऐसे होनहार खिलाड़ी को पंक्चर जोड़ते देखकर हर कोई हैरान है. बिहार में 'पंक्चर' हो चुके सिस्टम के चलते मंसूर आलम 10 साल तक नौकरी के लिए जूझते रहे. इन्हें नौकरी तो नहीं मिली लेकिन पंक्चर जोड़ना इनकी मजबूरी बन गई. घर में एक बूढ़ी मां, दो बहने हैं. एक बहन की शादी होना बाकी है. देश की खातिर मेडल जीते लेकिन परिवार के भरण पोषण के लिए अब जद्दोजहद कर रहे हैं. मंसूर का मानना है कि खेल का मैदान हो या जिंदगी की रेस, खिलड़ी कभी हारता नहीं.
'2015 से लेकर 2019 तक खेल चुके हैं. 2018 में इंटरनेशनल स्तर पर इंडिया को रिप्रेजेंट किया है. उस वक्त भी मैने खेल नहीं छोड़ा जब मैदान तक पहुंचने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हुआ करते थे. लोग चंदा जुटाकर मुझे भेजा करते थे. जीवन यापन के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने पंक्चर बनाने की दुकान खोल ली. गाड़ियों में हवा भरकर, पंक्चर जोड़कर परिवार का पेट पाल रहे हैं. खेल प्राधिकरण की तरफ से 5400 रुपए सालाना स्कॉलरशिप मिलती थी लेकिन 2011 से वो भी बंद हो गयी है.'- मंसूर आलम, इंटरनेशनल खो खो खिलाड़ी
बिहार सरकार भले ही खिलाड़ियों के लिए हमदर्द बताती है, सरकार की यह घोषणा भी है कि 'मेडल लाओ नौकरी पाओ' लेकिन यह कहीं ना कहीं हवा-हवाई साबित हो रही है. पटना के एनआईटी मोड़ के पास रहने वाले मंसूर आलम इसका जीता जागता उदाहरण हैं. खो खो के खेल में मंसूर आलम ने अपने राज्य का नाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन किया है. लेकिन आज मंसूर आलम की जिंदगी में अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं है. अपनी विधवा मां और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के खो खो खिलाड़ी मंसूर आलम पंक्चर की दुकान चलाकर जीविकोपार्जन कर रहे हैं.