नई दिल्ली :देश को बाहर में सबसे बड़ा खतरा चीन और पाकिस्तान से तो है ही लेकिन आंतरिक खतरा भी है जो सबसे बड़ा है. इसके लिए हर कौम को साथ लेकर चलना होगा, उनको दरकिनार करेंगे तो आईएसआई का टॉरगेट बनेंगे या माध्यम बनेंगे. इसलिए सभी को बराबर का मौका देना चाहिए, चाहे वह किसी भी मजहब का हो. यह याद रखना चाहिए की भारत में भीतर के असंतुष्टों ने ही बाहर वालों को हमेशा मौके दिए. उक्त बातें सेवानिवृत्त ब्रिगेडियार बीके खन्ना ने कहीं. 1971 में पकिस्तान से लड़ाई में अहम रोल निभाने वाले 77 वर्षीय पूर्व सेना अधिकारी ने उस समय के हालात के बारे में बताया कि उस समय वह कैप्टन के रूप में शमशेर नगर मौलवी सिलहट और ढाका यूनिवर्सिटी के इलाकों में रही.
भारत में गणतंत्र दिवस की अहमियत पर ब्रिगेडियर खन्ना ने कहा कि इसलिए अहम है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ने ब्रिटिश लीगेसी विरासत में पाई थी. हमारे साथ पाकिस्तान भी आज़ाद हुआ था, लेकिन आज देखिए पाकिस्तान में चार-पांच बार सेना तख्ता-पलट कर चुकी है, दूसरी ओर भारत में सेना ने डेमोक्रेटिक सिस्टम को हमेशा सपोर्ट किया है. हमारे यहां हमेशा लोकतंत्र और सबको साथ लेकर चलने की बात की गई. आप अपनी सरकारें बदल सकते हैं, राज्यों में भी और केंद्र में भी. ये लोकतंत्र सेना में भी है. कोई भी फैसला लेने से पहले राय-मशविरा डेमोक्रेसी के तहत होता है, फिर जो फैसला ले लिया, उसको लागू करने में ऑटोक्रेसी का इस्तेमाल होता है. लेकिन डेमोक्रेसी वहां भी है.
उन्होंने कहा कि आपको ताज्जुब होगा कि आज़ादी के बाद पाकिस्तान में फौज का दखल देख कर यहां भी कहा जाता था कि दिल्ली में या दिल्ली के आस-पास फौज नहीं रहनी चाहिए. लेकिन एक फौजी होने के नाते मैं जानता हूं कि सरकारें आएंगी-जाएंगी, लेकिन हिंदुस्तान में फौज हमेशा वहीं रहेगी, हमेशा अपना वही रोल निभाती रहेगी, जो एक लोकतांत्रिक देश में उसका होता है. ब्रिगेडियर खन्ना को चार साल पहले बांग्लादेश सरकार ने 'फ्रीडम फाइटर ऑफ बांग्लादेश' के सम्मान से नवाज़ा था. रिटायर होने के बाद भी देश सेवा से पीछे नहीं रहे, नेशनल डिसास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के फाउंडर मेम्बर भी रहे और कई आपदाओं से देश को बाहर निकाल कर लाने वाली योजनाओं के जनक भी रहे.
पाकिस्तान से बड़ा अजीब से रिश्ता रहा है ब्रिगेडियर खन्ना का. लाहौर के एक इलाके में उनका जन्म हुआ और 2 बरस की उम्र थी कि विभाजन हो गया. माता-पिता के साथ भारत आए और बड़े होकर वे सेना में अफसर हुए. 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के खिलाफ लड़े और फिर बांग्लादेश ने उन्हे अपनी आजादी का हीरो माना. बाद में रिटायरमेंट के बाद नब्बे के दशक में जब उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल में पाकिस्तान जाने का मौका मिला, तो वे लाहौर स्थित अपना घर भी देखने गए.