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यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका आमने-सामने, किसका पक्ष लेगा भारत, पढ़ें विशेषज्ञों की राय - saurabh sharma with anil trigunayat ex ambassador on ukraine

यूक्रेन को लेकर अमेरिका और रूस आमने-सामने हैं. हालात शीत युद्ध की तरह होते जा रहे हैं. ऐसे में भारत के सामने बड़ी चुनौती है. वह किसकी ओर दिखना चाहेगा. भारत के संबंध अमेरिका और रूस दोनों से ही अच्छे हैं. क्या भारत से सामने दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई है. उसे क्या करना चाहिए. पढ़िए एक रिपोर्ट ईटीवी भारत के वरिष्ठ संवाददाता सौरभ शर्मा की. उन्होंने पूरे मुद्दे पर पूर्व राजदूत अनिल त्रिगुणायत और जेएनयू के प्रो. गुलशन सचदेवा से बातचीत की है.

ukraine india stand
यूक्रेन पर भारत का रूख

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Published : Jan 25, 2022, 7:31 PM IST

नई दिल्ली : एक समय में जब अमेरिका और रूस के बीच शीत युद्ध का दौर चल रहा था, तब भारत ने तटस्थ रहने की रणनीति (गुटनिरपेक्ष) अपनाई थी. अभी यूक्रेन को लेकर एक बार फिर से अमेरिका और रूस आमने-सामने हैं, ऐसे में भारत किसी एक पक्ष की ओर झुका दिखाई देगा, इसकी संभावना नहीं है. भारत यह अच्छी तरह से जानता है कि यह पुराना वाला दौर नहीं है. ईटीवी भारत के साथ विशेष बातचीत में पूर्व राजदूत अनिल त्रिगुणायत ने कहा कि भारत स्पष्ट रूप से न तो यूक्रेन-अमेरिका और न ही रूस की ओर झुकता हुआ दिखना चाहेगा. उन्होंने कहा कि भारत के लिए रूस बहुत अलग महत्व रखता है. हमारा उनके साथ अलग लेवल का रिश्ता है.

यूरोपियन मामलों के विशेषज्ञ जेएनयू के प्रोफेसर गुलशन सचदेवा ने कहा कि यूक्रेन को लेकर रूस-यूरोपियन यूनियन-अमेरिका-नाटो जिस तरह से उलझ रहे हैं, उनमें पूरी दुनिया की राजनीति की गतिशीलता को प्रभावित करने की संभावना है. इसके बावजूद भारत रूस के खिलाफ नहीं बोलेगा. इसकी वजह दोनों देशों के बीच दशकों पुराना रिश्ता है. दोनों के बीच मजबूत द्विपक्षीय संबंध हैं. प्रो. सचदेवा ने कहा कि भारत हमेशा से ही स्वतंत्रता और संप्रभुता का समर्थक रहा है. वह क्षेत्रीय अखंडता के सिद्धांत का भी आह्वान करता रहा है. इसलिए वह किसी भी पक्ष को लेकर स्पष्ट स्टैंड नहीं लेगा. भारत राजनयिक कौशलता दिखाएगा.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यूरोपियन और नाटो के नेताओं से बातचीत करने के बाद सहमति जताई है कि वे यूक्रेन की सीमा पर रूसी सेनाओं की धमकी से निपटेंगे. उन्होंने फिर से दोहराया कि यूक्रेन में मास्को ने अगर सैन्य उग्रता दिखाई तो इसके गंभीर परिणम होंगे. हालांकि, उन्होंने यह जरूर कहा कि सहयोगी देशों ने राजनयिक तरीके से बातचीत कर इसे हल करने को लेकर इच्छा जताई है.

यहां आपको बता दें कि नई दिल्ली में जर्मनी के नौसैनिक प्रमुख ने यह बयान दिया था कि क्रीमिया अब रूस का हिस्सा बन चुका है, यह यूक्रेन के पास फिर से नहीं आएगा, और इसके लिए रूस के राष्ट्रपति ब्लदीमिर पुतिन बधाई के पात्र हैं, उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया. लेकिन यह बयान यह भी दर्शाता है कि यूरोपियन संघ के भीतर भी एक राय नहीं है. इसके पीछे सिर्फ भू राजनीतिक स्थिति ही नहीं, बल्कि भू आर्थिक स्थिति भी अहम रोल अदा कर रहा है.

यूरोप के तीन प्रमुख देश जर्मनी, इटली और फ्रांस का रूस से बहुत अच्छा संंबंध है. इन देशों, खासकर जर्मनी की, ऊर्जा को लेकर रूस पर निर्भरता है. पूर्व राजदूत अनिल त्रिगुणायत मानते हैं कि रूस का यूरोप से गहरा संबंध है. उनके अनुसार रूस को दिक्कत सिर्फ अमेरिका से है. क्योंकि रूस यूरेशियन देशों में ताकतवर है और पुतिन का इन तीनों देशों से मजबूत संबंध है, साथ ही इन देशों की ऊर्जा की जरूरतें भी रूस पूरी करता है, इसलिए वे किसी भी तरह से रूस के साथ युद्ध नहीं चाहते हैं. त्रिगुणायत का कहना है कि जर्मनी और अमेरिका के बीच रिश्ते डोनाल्ड ट्रंप की वजह से खराब हुए हैं. एंजेला मार्केल के फोन की टैपिंग तक की गई थी. उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि रूस यूक्रेन पर हमला करने को लेकर बहुत अधिक उग्र नहीं है, उसकी मंशा सिर्फ क्रीमिया को अपने साथ रखने की है.

त्रिगुणायत से जब पूछा गया कि आखिर जर्मनी के नौसेना प्रमुख ने क्यों इस्तीफा दे दिया, उन्होंने कहा कि दरअसल, नौसेना प्रमुख ने सच बोला. वास्तविक स्थिति यही है. लेकिन सार्वजनिक तौर पर कोई इसे स्वीकार करना नहीं चाहेगा. यहां तक कि अमेरिका को भी पता है कि रूस अब क्रीमिया को वापस नहीं करेगा. रूस के लिए क्रीमिया बहुत ही महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि रूस नहीं चाहता है कि यूक्रेन पश्चिमी लॉबी या यूरोपियन यूनियन या नाटो की ओर जाए. उनका इस्तीफा ऐसे समय में आया है जबकि जर्मनी ने एस्टोनिया को जर्मन हथियार यूक्रेन को बेचने से मनाही कर दी. अमेरिका और यूके द्वारा सैन्य मदद दिए जाने के बाद दोनों देशों ने यूक्रेन से राजनयिकों के परिवारों को वापस बुला लिया है. इसके बाद रूसी आक्रमण की और अधिक खतरे बढ़ गए हैं. इस घोषणा के बाद ऑस्ट्रेलिया ने भी अपने लोगों और राजनयिकों और उनके परिवारों को यूक्रेन छोड़ने को कहा है. जर्मनी भी ऐसे ही सुझाव पर विचार कर रहा है. अमेरिका ने 8500 सैनिकों को हाई अलर्ट पर रखा है. सोमवार को नाटो ने कहा कि वह पूर्वी यूरोप में सेनाओं की तैनाती बढ़ा रहा है ताकि रूसी आक्रमण का सामना किया जा सके. ये सभी रणनीतिक कदम रूस को भड़काने वाले माने जा रहे हैं.

रुस के लिए यूक्रेन और पूर्वी यूरोप के देश उनके ठीक पीछे हैं. जाहिर है, ऐसे में यहां पर कोई भी हलचल होती है, तो रूस चुप नहीं बैठेगा. यहां यह जानना जरूरी है कि यह समस्या कोई अचानक ही पैदा नहीं हुई. 2014 में जब रूस ने क्रीमिया को मिला लिया था, तभी से यहां पर तनाव बढ़ने लगा था. उसके बाद नाटो का पूर्वी यूरोपियन देशों के साथ बढ़ता संबंध रूस पर दबाव बनाता रहा है. रूस मानता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद नाटो उनके इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाने की लगातार कोशिश कर रहा है.

पूरी घटना बताती है कि एक बार फिर से 30 सालों बाद इस क्षेत्र में शीत युद्ध जैसे हालात बनते जा रहे हैं. इसमें पूरी दुनिया की भू राजनैतिक स्थिति को प्रभावित करने की क्षमता है. यूरोपियन यूनियन फॉरेन पॉलिसी के प्रमुख जोसेप बोर्रेल ने अमेरिकी रक्षा सचिव एंटनी ब्लिंकेन से बात करने के बाद तनाव कम होने की बात कही है. उन्होंने कहा कि इसमें कोई शंका नहीं है कि स्थिति जटिल है, लेकिन हमें तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से बचना होगा. स्थिति को बिगड़ने नहीं देना चाहिए.

कुछ दिनों पहले यूक्रेन के जनरल ने मीडिया से बातचीत में कहा था कि रूस यूक्रेन पर 20 फरवरी के आसपास हमला करेगा. उसी दिन चीन में ओलंपिक खत्म होगा. खबर है कि रूस ने यूक्रेन की सीमा पर एक लाख सैनिकों को एकत्रित कर रखा है. इतना तो तय है कि रूस किसी भी हाल में स्थिति को अपने हाथ से बाहर जाने नहीं देगा. वह चुपचाप बैठने वालों में से भी नहीं है और नाटो के हरेक कदम पर उसकी पैनी नजर बनी हुई है.

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