नई दिल्ली :देश अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मानकों और नियमों को पूरा करने से कोसों दूर है. यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता के संदर्भ में विभिन्न राज्यों में एक विपरीत स्थिति नजर आती है. स्वस्थ जनसंख्या किसी भी राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त है. यही कारण है कि कई देश स्वास्थ्य सेवाओं के निर्माण और सुधार के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा प्रतिशत आवंटित करते हैं. प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य व्यय के लिए किए गए सर्वेक्षण में 190 देशों की सूची में भारत 141वें स्थान पर है.
कोविड-19 के संदर्भ में घरेलू स्वास्थ्य क्षेत्र को मौजूदा प्रणालियों में कमजोरियों को आत्मसात करने और उनकी समीक्षा करने की आवश्यकता है. 2020-21 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिए आवंटित 69,000 करोड़ रुपये कुल जीडीपी का मात्र एक प्रतिशत है. ये राशि भारत जैसे अत्यधिक आबादी वाले देश की स्वास्थ्य जरूरतों के लिए सकल अपर्याप्त है. भले ही योजना आयोग (2011) ने स्वास्थ्य क्षेत्र को जीडीपी का 2.5 प्रतिशत आवंटित करने की सिफारिश की हो, लेकिन किसी भी सरकार ने इसे लागू करने का प्रस्ताव नहीं रखा है.
प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना
सितंबर 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) शुरू की, जिसे आयुष्मान भारत भी कहा जाता है, ताकि वंचितों के लिए स्वास्थ्य सेवा की मुफ्त पहुंच प्रदान की जा सके. यह दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना बताई जाती है. यह योग्य आबादी के लिए पांच लाख रुपये का बीमाकृत राशि प्रदान करती है.
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1.5 लाख स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य
आर्थिक, जाति और सामाजिक जनगणना के आधार पर 40 प्रतिशत आबादी यानी 10 करोड़ परिवार या 50 करोड़ लोग इस योजना के लाभार्थी हैं. इस योजना से अब तक लगभग 72 लाख लोग लाभान्वित हुए हैं, लेकिन यह योजना सीमित संख्या में बीमारियों के लिए ही बीमाकृत राशि प्रदान करती है. हालांकि आयुष्मान भारत ने 2022 तक 1.5 लाख स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन इस लक्ष्य का एक चौथाई भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया.
एनएचए द्वारा जारी रिपोर्ट
राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, पीएमजेएवाई को लागू करने के लिए जिम्मेदार शीर्ष निकाय ने बीमा राशि के भुगतान के मामले में विभिन्न राज्यों के बीच के अंतर पर प्रकाश डाला है. सबसे गरीब राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) ने धन का उपयोग सबसे कम किया है, जबकि केरल ने इस योजना के तहत अस्पताल में सबसे अधिक भर्तियां करने की सूचना दी है.
आयुष्मान भारत के साथ भागीदारी नहीं
115 एस्पिरेशनल जिलों में से किसी एक में भी स्वास्थ्य सेवा केंद्र की आयुष्मान भारत के साथ भागीदारी नहीं की है. यहां तक कि इन जिलों के निजी अस्पताल भी इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए अनिच्छुक हैं. महाराष्ट्र और उत्तराखंड को छोड़कर अधिकांश राज्यों ने सिर्फ विकसित जिलों में ही निजी अस्पतालों को इस योजना से सशक्त बनाया है.
जिला अस्पतालों से जोड़ने की घोषणा
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, देश में डॉक्टर-जनसंख्या का अनुपात 1: 1456 है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा सिफारिश किए गये 1:1000 के खिलाफ है. इस अनुपात में सुधार करने के लिए सरकार ने मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़ने की घोषणा की है. वर्तमान में देश भर में 526 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं.
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राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के तहत स्नातकोत्तर कोर्स
पिछले दो वर्षों में इन कॉलेजों में सीटों की संख्या 82,000 से बढ़कर 1,00,000 हो गई है. राज्य द्वारा संचालित और निजी अस्पतालों के बीच असमानता बढ़ती जा रही है. लगभग 58 प्रतिशत अस्पताल के बेड निजी क्षेत्र में हैं. 81 प्रतिशत डॉक्टर निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं. केंद्र की मंशा है कि पर्याप्त क्षमता वाले अस्पतालों में राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के तहत स्नातकोत्तर का कोर्स कराए जाएं.
बेहतरीन चिकित्सा उपकरणों से लैस अस्पताल
शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सरकार की भूमिका को कम करने का प्रयास किया गया है. सरकारी अस्पतालों में एमबीबीएस के पाठ्यक्रम से परे उम्मीदवारों के लिए कम प्रशिक्षण सुविधाएं उपलब्ध हैं. कुशल चिकित्सकों की स्पष्ट कमी देखी जा सकती है. देश के कॉरपोरेट अस्पताल बेहतरीन चिकित्सा उपकरणों से लैस हैं. वे सरकार द्वारा दिए जा रहे प्रोत्साहन का लाभ भी उठाते हैं.
डॉक्टरों के रूप में नियुक्त मेडिकल छात्र
कुछ निजी अस्पताल अपने डॉक्टरों को विदेशों में प्रशिक्षित करवाने की क्षमता भी रखते हैं. उनकी सेवाओं का उपयोग करते हुए, राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड मेडिकल के छात्रों को स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश की सुविधा प्रदान कर सकता है. कठोर वास्तविकता यह है कि कई मेडिकल छात्रों को ड्यूटी पर डॉक्टरों के रूप में नियुक्त किया जा रहा है और उन्हें मरीजों के साथ बातचीत करने का मौका प्रदान किए बिना स्नातक की उपाधि दी जा रही है.