नई दिल्ली: पचपन बरस के कनाडाई बिज़नेसमैन हरमन गिल का अपना ड्राइविंग स्कूल है. 21 बरस की उम्र में किस्मत का दरवाज़ा खटखटाने कनाडा आए थे, आज अपनी मेहनत के चलते एक फलते-फूलते बिज़नेस के मालिक हैं. वे बताते हैं- 'देखिए अंदर हमारे समाज में तो ऐसा कुछ नहीं है. कुछ लोग बेशक सोशल मीडिया पर हिंदुओं को धमकियां दे रहे हैं, मैसेज वायरल कर रहे हैं, लेकिन असलियत में यहां भाईचारा पूरा है. मैं जहां बैडमिंटन खेलने जाता हूं, वहां एक-दो सरदार ही है, बाकी 10 या 12 हिंदू ही हैं. वहां कभी कोई ऐसी बात नहीं हुई.'
बात करते-करते गिल की आवाज़ में घर कर गई उदासी का एहसास साफ होता है. कहते हैं- 'जिस देश का नमक खाया है उसके साथ नमकहरामी तो नहीं करनी चाहिए न. 21 साल का था मैं, तब कनाडा आया था. अब 55 का हो रहा हूं. हिंदुस्तान से ज़्यादा उम्र मैंने यहां गुज़ार दी है. लेकिन आज भी वही जज़्बा अपने देश के लिए बरकरार है. कई बार मन यही होता है कि इंडिया ही सेटल हो जाउं.
खालिस्तान के बारे में गिल क्या सोचते हैं, इस सवाल के जवाब की शुरुआत वे बड़े मासूम से सवाल से करते हैं- 'क्या करेंगे खालिस्तान ले कर? मेरे पिता जी तो हमेशा भिंडरावाले के खिलाफ थे. गुरु साहिबान ने कहा होता तो ले लेते खालिस्तान. हरि सिंह नलवा कितने बड़े लड़ाके थे, महाराजा रणजीत सिंह का कितना बड़ा राज था, तब भी उन्होंने नहीं लिया खालिस्तान. तो ये सब तो बस मुट्ठी भर लोग प्रोपेगैंडा कर रहे हैं और कुछ तो इसमें आईएसआई का भी हाथ हैं.'
गिल की ईमानदार उदासी कनाडा में खालिस्तान की तस्वीर की असलियत बताती है. दरअसल खालिस्तान को लेकर चर्चा आमतौर पर कनाडा के उन इलाकों में ज़्यादा होती है, जहां सिखों की जनसंख्या खूब है, जैसे वैंकूवर और टोरंटो. वे मंदिरों के सामने प्रदर्शन करते हैं, मंदिरों की दीवारों पर खालिस्तान समर्थक और हिंदू विरोधी नारे लिख देते हैं और मंदिर जाने वाले हिंदुओं को चिढ़ाने की भी कोशिश करते हैं.
लेकिन वे कोई ऐसा काम नहीं करते जो कनाडाई कानून के हिसाब से अपराध की श्रेणी में आता हो. इसीलिए बच जाते हैं या छोटी मोटी सजा या ज़ुर्माना झेल कर बाहर आ जाते हैं. लेकिन ये हंगामा देखकर आम तौर पर शांतिप्रिय मूल कनाडाई निवासियों की क्या प्रतिक्रिया होती है, ये बताया आईटी इंजीनियर सुमंत ने- 'ओरिजिनल कनाडियन के मन में इनकी छवि बड़ी नकारात्मक है. सामाजिक कामों के लिए चंदा इकट्ठा कर इस छवि को सुधारने की बड़ी कोशिशें हुई हैं, लेकिन पिछले तीन सालों से यहां के मूल निवासी सिखों से नाराज़ हैं और इनके बीच काफी दूरी आ गयी है. यहां तक कि यहां का आम श्वेत कनैडियन ट्रूडो से भी बहुत नाराज़ है और ये तय है कि त्रुदो का वक्त अब खत्म हो गया है. उसकी इमेज इतनी खराब है कि उसे यहां सब कनाडा का पप्पू कहते हैं. खासतौर पर 2018 की उसकी भारत यात्रा से भी उसका इमेज यहां बहुत खराब हुआ.'
आमतौर पर कनाडा की पुलिस का रवैया बड़ा निष्पक्ष रहता है, लेकिन खालिस्तान समर्थक सिख उनसे डरते नहीं. सुमंत बताते हैं- 'कनाडा की पुलिस से ये नहीं डरते. राजनैतिक रसूख भी इनका इतना है कि इन्हें हाथ नहीं लगाता कोई. इनकी लीगल मशीनरी इतनी तैयार रहती है कि प्रदर्शनकारियों को कवर मिलता रहता है.