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Declining Democratic Values : क्या संसद के विशेष सत्र में गिरते प्रजातांत्रिक मूल्यों पर भी चर्चा होगी ?

संसद का विशेष सत्र सोमवार से शुरू हो रहा है. इनमें किन विषयों पर चर्चा की जाएगी, सरकार ने इसे स्पष्ट कर दिया है. हालांकि, प्रजातांत्रिक वैल्यू के हिसाब से देखें तो इस सत्र में जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए, उस पर विचार नहीं किया गया है. डेमोक्रेसी को और बेहतर तभी किया जा सकता है, जब हम उसे प्रभावित करने वाले कारकों पर विचार कर निदान का मार्ग ढूंढे. संवैधानिक जानकारों की राय रही है कि स्वतंत्रता के बाद हमने प्रजातांत्रिक मूल्यों का ह्रास देखा है. वह भी दो मौकों पर. पहला उस समय जब 21 महीने के लिए आपातकाल लगाया गया, और दूसरा 2014 के बाद से. पढ़िए एनवीआर ज्योति का एक आलेख. वह मिजोरम सेंट्रल यूनिवर्सिटी में कॉमर्स विभाग के प्रोफेसर हैं.

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 15, 2023, 6:16 PM IST

हैदराबाद : आज इंटरनेशनल डे ऑफ डेमोक्रेसी है. सोमवार से संसद का विशेष सत्र शुरू हो रहा है. सरकार ने कहा कि अमृत काल में हम संसद के विशेष सत्र में सार्थक विषयों पर चर्चा करेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद के बाहर और भीतर, दोनों जगहों पर बार-बार कहते रहे हैं कि प्रजातंत्र हमारी प्रेरणा है और यह हमारे नसों में बसता है. वह यह भी कहते हैं कि भारत प्रजातंत्र की जननी है, और बात जब प्रजातंत्र की होती है तो इसका मतलब सिर्फ ढांचा नहीं, बल्कि उसमें सन्निहित समानता का भाव भी शामिल है. ऐसे में यह उचित होगा कि हम अमृत काल के इस दौर में भारत की संसदीय प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं की समीक्षा करें, खासकर उसकी व्यवहार्यता वाले पहलू पर.

क्या जिस भाव को लेकर बार-बार यह कहा जाता है, सबका साथ सबका विकास, यह हमारे विकास में दिख रहा है. राजनीतिज्ञों और संवैधानिक जानकारों की राय रही है कि स्वतंत्रता के बाद हमने प्रजातांत्रिक मूल्यों का छीजन देखा है. पहला उस समय जब 21 महीने के लिए आपातकाल लगाया गया, और दूसरा 2014 के बाद से.

वैश्विक डेमोक्रेटिस वॉचिंग संस्थाएं आपातकाल और आज की स्थिति को अलग-अलग नजरिए से देखती हैं. आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी ने सभी प्रजातांत्रिक संस्थानों, चुनावों पर रोक, विरोधी पक्षों की गिरफ्तारी, नागरिक स्वतंत्रा पर रोक, स्वतंत्र मीडिया पर प्रतिबंध और संवैधानिक संशोधनों की झड़ी लगा दी थी, कोर्ट की शक्ति भी कम कर दी गई थी, उसे अलग एंगल से देखते हैं.

इसके ठीक विपरीत आज के दौर को वे बिलकुल ही अलग परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं. उनका मानना है कि इस समय भारत की स्थिति पूर्ण जनतंत्र और निरंकुश तंत्र के बीच वाली है. उदाहरण स्वरूप यूएस गवर्मेंट फंडेड नॉन प्रोफिट ऑर्गेनाइजेशन 'फ्रीडम हाउस' ने पिछले तीन सालों से भारत की रेटिंग निगेटिव रखी हुई है. इसने इसे 'आंशिक फ्री' देश तक कहा है. इसने सरकार को हिंदू नेशनलिस्ट गवर्मेंट कहा है. उनके अनुसार इनके सहयोगी हिंसा और विभेदकारी नीतियों से मुस्लिम आबादी को प्रभावित कर रहे हैं.

वैसे भी आप देखेंगे तो 2020 के बाद से दुनिया के कई इलाकों में निरंकुश सरकारों की संख्याएं बढ़ी हैं. वी-डेम, (स्वीडन स्थित गोदेनबर्ग यूनिवर्सिटी की संस्था), के अनुसार 2022 तक 42 देशों में सरकारें निरंकुश तरीके से काम कर रहीं हैं. भारत को इसने 'इलेक्ट्रोरल ऑटोक्रेसी' की कैटेगरी में डाल दिया है. यहां तक बता दिया कि पिछले 10 सालों में सबसे खराब निरंकुशवादी सरकार यहां पर है. आबादी के हिसाब से बात करें तो वी-डेम के अनुसार 2022 के अंत तक 5.7 अरब आबादी इन्ही निरंकुश सरकारों के अधीन हैं.

लंदन स्थित इकोनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने 2020 डेमोक्रेटिक इंडेक्स में भारत को 'झूठे' लोकतंत्र वाला देश बताया है. 167 देशों की सूची में 53वां स्थान दिया. अब सवाल ये है कि आखिर प्रजातांत्रिक वैल्यू किस तरह से इंडिया में गिर रहा है, क्या इसे रोका जा सकता है ? डेमोक्रेसी वॉचडॉग ने कुछ सूचकांक निर्धारित किए हुए हैं. इनके आधार पर वैश्विक स्तर पर प्रजातंत्र की विश्वसनीयता और उसकी व्यापकता का मूल्यांकन किया जाता है. जैसे- चुनावों की निष्पक्षता, स्वस्थ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, नागरिक स्वतंत्रता, और संसदीय कमेटी का कामकाज वगैरह.

एडीआर ने 2023 में अपने अध्ययन में पाया कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों के पास पैसों की ताकत होती है. कुल 30 मुख्यमंत्रियों में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी सबसे अधिक संपत्ति वाले सीएम हैं. उनके पास 510 करोड़ से भी अधिक की संपत्ति है. हालांकि, उनके खिलाफ कई आपराधिक मामले भी दर्ज हैं. उसके बाद दूसरा स्थान अरुणाचल प्रदेश के सीएम प्रेमा खांडू का आता है. उनके पास 163 करोड़ की संपत्ति है. नवीन पटनायक के पास 63 करोड़ की संपत्ति है. तेलेगाना के सीएम केसीआर के पास 23 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है. प.बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के पास एक करोड़ से कम की संपत्ति है. औसतन एक सीएम के पास करीब 34 करोड़ की संपत्ति प्रतीत होती है. 13 मुख्यमंत्रियों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की जानकारी दी है. इनमें हत्या, अपहरण और हत्या के प्रयास दोनों शामिल हैं. इस सूची में दक्षिण के तीन मुख्यमंत्रियों के नाम प्रमुखता से शामिल हैं.

राज्यसभा में भाजपा के 27 फीसदी और कांग्रेस के 40 फीसदी सांसदों ने शपथ पत्रों में अपने खिलाफ आपराधिक मामलों के दर्ज होने की जानकारी दी है. लोकसभा में करीब-करीब आधे सदस्य ऐसे हैं, जिनके खिलाफ कोई न कोई आपराधिक मामले जरूर दर्ज हैं. 2014 के चुनाव के बाद इनकी संख्या बढ़ी है. वोटर्स को खरीदना, धमकाना, शराब बांटना, नफरत फैलाना ये सब आम बात हो गए हैं. आंध्र प्रदेश में तो वोगस वोटर्स के बारे में भी खबरें आई हैं. क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या इससे लेवल प्लेइंग फील्ड संभव है.

ग्लोबल सिविल लिबर्टिज को वैश्विक स्तर पर ट्रैक करने वाली संस्था सिविकस मॉनिटर के अनुसार वर्तमान सरकार ने यूएपीए और देशद्रोह कानून का खुलकर अपने विरोधियों की आवाज दबाने के लिए प्रयोग किया है. संस्था 197 देशों को ट्रैक करती है. 2023 में वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान 180 देशों में 161 वें स्थान पर है. इस सूची को पेरिस की संस्था रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डस ने जारी की है. बल्कि इसमें पाकिस्तान की रैंकिंग भारत से बेहतर 150वां है.

जो भी जनता के हित के मुद्दे होते हैं, उनसे जुड़े बिलों पर व्यापकता से विचार करने के लिए उसे संसदीय कमेटी के पास भेजा जाता है. लेकिन ऐसा लगता है कि इसकी भी अनदेखी की जा रही है. अभी-अभी खत्म हुए मॉनसून सत्र में लोकसभा ने 43 फीसदी और राज्यसभा ने 55 फीसदी ही समय का उपयोग किया. इसके बवजूद 23 महत्वपूर्ण बिल पारित हो गए. उन पर नाम मात्र की चर्चा हुई.

आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से कार्यपालिका की कार्रवाई पर लीगल स्क्रूटनी कम हो गई है. संसदीय कमेटी इस पर एक अंकुश रखती है. यहां पर महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंभीरता से चर्चा की जाती है. 2009-14 के बीच 71 फीसदी बिलों को कमेटी के पास भेजा गया था. 2014-19 के बीच 25 फीसदी बिल को ही कमेटी के पास भेजा गया. उसके बाद मात्र 13 फीसदी बिलों को यहां पर भेजा गया है.

संसद को अनिवार्य कर देना चाहिए जब भी कोई बिल को पेश किया जाता है, उसे संसदीय कमेटी के पास भेजा जाए. सिर्फ राजनीतिक नजरिए से ही बिलों को देखने की परंपरा छोड़नी होगी.

पूर्व उप-राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने बहुत ही गंभीर सुझाव दिया था. उन्होंने चुनावी खर्चों और लोकलुभावन वादों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया था. उन्होंने मनी पावर (अवैध तरीके से जमा की गई राशि) के विषय पर चिंता व्यक्त की थी. दूसरा विषय जिसे उन्होंने उठाया था, वह है मतदाताओं को अनुचित तरीके से प्रभावित करने का. प्रायः देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियां तात्कालिक लाभ के लिए लुभावने वादे करते हैं. इसे फ्रीबी कल्चर भी कहा जाता है. और उसे कैसे पूरा किया जाएगा, इस पर कोई उनसे पूछने वाला नहीं है. उसके लिए बजट कहां से आएगा, कोई चर्चा नहीं होती है. इसे पूरा करने के चक्कर में मूलभूत ढांचा, बेसिक सुविधाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के वादे पूरे नहीं हो पाते हैं. नायडू ने राजनीतिक पार्टियों से इस मामले पर पारदर्शिता बरतने की अपील की थी. उन्होंने जवाबदेही की बात कही थी.

दूसरे देशों में राजनीतिक पार्टियों की वित्तीय स्थिति की ऑडिटिंग होती है. मोदी सरकार ने 2017 में विवादास्पद इलेक्टोरल बॉंड सिस्टम को अपनाया. इलेक्टोरल फंडिंग को लेकर तभी से विवाद रहा है. इसे कई लोग संदिग्ध नजरिए से देखते हैं. इस मामले में इंडिया को मोस्ट अनरेगुलेटेड कंट्री माना जाता है. हकीकत ये है कि जितनी अधिक पारदर्शी व्यवस्था होगी, उतनी अधिक व्यवस्था बेहतर होगी. इससे पब्लिक पॉलिसी हरेक नागरिक के प्रति जवाबदेह होगी, न कि सिर्फ संपन्न लोगों के प्रति झुका होगा.

समय आ गया है कि फिस्कल रेस्पॉंस्बिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट की तर्ज पर फिस्कल डेफिसिट पर कैप लगाया जाए. कितने का बजट है, और उसका कितना प्रतिशत आप फ्रीबी के लिए दे सकते हैं, इसके बारे में सबकुछ स्पष्ट होना चाहिए. आप जो भी करें कानून के दायरे में करें. इससे सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए समान प्लेइंड फील्ड होगा. अनाप-शनाप वादे नहीं किए जा सकेंगे.

इसी तरह से 1985 में लाया गया एंटी डिफेक्शन लॉ बुरी तरह से अपने मकसद में फेल हो गया. इस कानून के बावजूद पार्टियों ने सरकारों को गिराने के लिए कानून का दुरुपयोग किया. इस पर भी विचार करने का समय है.

चुनावों पर खर्च - सीएमएस, सेंटर फॉर मीडिया स्टडी के निदेशक पीएन वासंती ने कहा कि 1998 से 2019 के बीच चुनावी खर्च छह गुना बढ़ गया है. नौ हजार करोड़ से बढ़कर करीब 55000 करोड़ रु. हो गया है. 2019 में इनमें से आधी राशि सिर्फ भाजपा ने खर्च की. जाहिर है, इतना सारा पैसा खर्च होता है, यह कानून के दायरे में नहीं हो रहा है. यूएस प्रेसिडेंशियल चुनाव में भी इतने पैसे खर्च नहीं होते हैं. 12 फीसदी मतदाताओं ने स्वीकार किया कि उन्होंने कैश स्वीकार किए हैं. इनमें से दो तिहाई ने कहा कि उनके आसपास के मतदाताओं ने भी पैसे रिसिव किए हैं.

लिहाजा, समय आ गया है कि संसद के सत्र में इन गंभीर मुद्दों पर खुलकर बहस होनी चाहिए, ताकि हम अपने प्रजातांत्रिक मूल्यों का विवेचन कर सकें. यह नहीं कि एक देश, एक चुनाव जैसे संकीर्ण, अव्यावहारिक और भावनात्मक मुद्दों तक अपने को सीमित कर लें.

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