हैदराबाद :भले ही सूबे में भाजपा राष्ट्रवाद और विकास के नाम पर चुनाव लड़ने की बात कह रही हो, लेकिन पार्टी के बड़े नेताओं के हालिया बयानों ने यह साफ कर दिया है कि अबकी भाजपा एक बार फिर जियारत पर सियासत के मूड में है यानी धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश चरम पर है. वहीं, सूबे की गैर भाजपा पार्टियों की निगाहें मुस्लिम वोटों पर टिकी हैं. इन वोटों का एक बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी के पास रहा है, लेकिन बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को भी मुस्लिम वोट पारंपरिक तौर से मिलता रहा है. इस बार असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम इन वोटों की नई दावेदार हैं. गौरतलब है कि प्रदेश की 143 सीटों पर मुस्लिम मतदाता प्रभावी हैं.
यूपी में मुस्लिमों की अनुमानित आबादी करीब 20 फीसद है. वहीं, 2007 में बड़े पैमाने पर मुस्लिमों ने बसपा के पक्ष में मतदान किया था. इस चुनाव में ऐसा माना जा रहा है कि मुस्लिमों का वोट समाजवादी पार्टी को जाएगा. पर ये एक अनुमान मात्र है, क्योंकि कि एकमुश्त वोट होगा कि नहीं, यह बड़ा सवाल है. साल 2007 में इस समुदाय के मतदाताओं ने बसपा के पक्ष में मतदान किया था तो 2012 में इनका वोट सपा को गया था. लेकिन 2017 में यह सपा, कांग्रेस और बसपा के बीच बंट गए थे. उत्तरप्रदेश में 20 फीसद की बड़ी आबादी होने के बाद भी 2017 में केवल 23 मुस्लिम ही विधायक चुने गए थे.
मुस्लिम विधायकों की सबसे अधिक संख्या साल 2002 में 64 थी. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 40 सीटों पर मुस्लिमों की आबादी 30 फीसद से अधिक है. रामपुर, फर्रुखाबाद और बिजनौर ऐसे क्षेत्र हैं, जहां मुस्लिमों की संख्या करीब 40 फीसद है. एक अनुमान के मुताबिक सूबे की 143 सीटों में से 73 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिमों की संख्या 20 से 30 फीसद के बीच मानी जाती है और करीब 40 सीटों पर मुस्लिम आबादी 30 फीसद से अधिक है.
यूपी में 1970 और 1980 के दशक में समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियों के उदय और कांग्रेस के पतन के बाद पहली बार विधानसभा में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि हुई. विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या 1967 में 6.6 फीसद थी, जो 1985 में 12 फीसद हो गई. 1980 के दशक के आखिर में भाजपा के उदय के साथ 1991 अल्पसंख्यक विधायकों की संख्या घटकर 5.5 फीसद हो गई है.