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Holi 2023 : जानिए कितनी पुरानी है होली की परंपरा, किन ग्रंथों में मिलता है उल्लेख

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Published : Feb 24, 2023, 4:46 AM IST

होली का त्योहार आपसी प्रेम और भाईचारा बढ़ाने वाला त्यौहार कहा जाता है. यह आदिकाल से मनाया जाता रहा है. क्या आप जानते हैं कि यह परंपरा कितनी पुरानी है और इतिहासकारों व साहित्यकारों ने कहां-कहां इसका उल्लेख किया है.....

Holi Tradition and History in India
होली की परंपरा

हमारे देश में होली का त्योहार काफी हर्ष और उल्लास के साथ हिंदू ही नहीं बल्कि अन्य समुदाय के लोगों के द्वारा भी मनाया जाता है. हमारे हिंदू पंचांग के अनुसार होली का त्यौहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. यह हमारे देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जो सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अलग-अलग देशों में भी हर्ष व उल्लास के साथ मनाया जाता है. पारंपरिक तौर पर यह पर्व 2 दिनों तक मनाया जाता है, जिसमें पहले दिन होलिका दहन और दूसरे दिन रंग और गुलाल की होली खेली जाती है. भारत के साथ-साथ इस पर्व को नेपाल में भी काफी प्रमुखता से साथ मनाया जाता है. साथ ही साथ आसपास के कई अन्य देशों में अल्पसंख्यक हिंदू लोग भी इस त्योहार को मनाया करते हैं.

होली को रंज और गम भुला कर आपसी प्रेम और भाईचारा बढ़ाने वाला त्यौहार कहा जाता है. इस पर्व को मनाने के दौरान लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर और गुलाल खेलते हैं तथा गीत और संगीत के माहौल में पूरा देश सराबोर हो जाता है. होली का त्योहार एक ऐसा त्योहार है, जो प्राचीन काल से ही मनाया जाता है.

राधा कृष्ण की होली

इतिहासकारों का मानना है कि इस पर्व का प्रचलन प्राचीन काल से ही है. इसका उल्लेख पुरानी धार्मिक पुस्तकों और धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है. नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों और हस्तलिखित लिपियों में होली के पर्व का उल्लेख है. अगर प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य को देखें तो वहां भी इसका वर्णन मिलता है. श्रीमद्भागवत पुराण रसों के समूह को रास कहा गया हैं और रास में रंग का खास महत्व है.

संस्कृत साहित्य में होली
इसके अलावा कालिदास के ग्रंथ कुमारसंभवम् और मालविकाग्निमित्रम् में भी इसका वर्णन है. साथ ही साथ कालिदास रचित ऋतुसंहार में एक पूरा सर्ग ही बसंत ऋतु को समर्पित किया गया है. चंद्रवरदाई के द्वारा रचा गया हिंदी का पहला महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली का भव्य वर्णन है. इतना ही नहीं अगर भक्ति काल में और रीतिकाल के कवियों के साहित्य को देखेंगे तो वहां भी होली का वर्णन दिखाई देता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तकालीन कवि सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, मीराबाई व कबीर के साथ-साथ रीतिकालीन कवियों में शामिल बिहारी, केशव व घनानंद इत्यादि के साहित्यों में होली के कई रंग दिखायी देते हैं.

साहित्यकारों का कहना है कि महाकवि सूरदास ने बसंत और होली पर कुल 78 पद लिखे हैं. राधा कृष्ण के बीच खेली गई होली और रासलीलाओं का खास तौर पर वर्णन किया जाता है. जिसमें कृष्ण व राधा रंग व गुलाल से सराबोर होकर एक हो जाते हैं. इसीलिए ब्रज में होली का पर्व खास तौर पर मनाया जाता है.

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इसके अलावा अगर मुस्लिम संप्रदाय के साहित्यिक रचनाकारों को देखा जाए तो सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह जफर जैसे दिग्गजों ने भी होली पर कई सुंदर रचनाएं लिखी हैं और इस त्यौहार के महत्व को उजागर किया है. आधुनिक हिंदी के कहानीकारों में मुंशी प्रेमचंद के अलावा अन्य लेखकों ने अपनी रचनाओं में भी होली के महत्व और इसके उद्देश्य को बताया गया है.

मुगलकालीन होली की परंपरा

मुगलकाल में होली का त्योहार
ऐसा कहा जाता है कि केवल हिंदू राजाओं ने नहीं, बल्कि मुस्लिम कवियों और राजाओं ने भी होलिकोत्सव को एक स्वीकार्य त्योहार के रूप में देखा. मुगलकाल के शासन के दौरान होली के कई किस्से सुनाए जाते हैं. अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने के तमाम वर्णन इतिहास में दर्ज हैं. अलवर के संग्रहालय में जहांगीर को होली खेलते हुए भी प्रदर्शित किया गया है. शाहजहां के समय तक होली खेलने का एक अलग ही मुगलिया अंदाज हुआ करता था. इतिहास में वर्णित घटनाओं और जानकारियों को देखा जाए तो शाहजहां के जमाने में होली को होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहकर संबोधित किया जाता था. इतना ही नहीं अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में यह जाता है कि होली के त्यौहार के दिन उनके मंत्री उनको रंग लगाए लगाने के लिए उनके पास से आया करते थे.

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