नई दिल्ली : विनायक दामोदर सावरकर का नाम और उनके बारे में पक्ष और विपक्ष की राय एक बार फिर उस समय सुर्खियों में आई, जब देश की राजधानी दिल्ली में सावरकर पर लिखी एक पुस्तक का विमोचन हुआ. कार्यक्रम में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह मौजूद थे, जिन्होंने सावरकर पर अपने विचार रखे.
भागवत और राजनाथ के व्यक्तव्यों के बाद एक बार फिर नई बहस छिड़ गई और विपक्ष के कई नेताओं ने सावरकर के विरोध या आलोचना में अपने बयान देने शुरू कर दिये, लेकिन सावरकर से जुड़े विषयों को समझने और उनसे जुड़े इतिहास के तथ्यों को जानने के लिये ईटीवी भारत देश के जाने माने इतिहासकार प्रो. कपिल कुमार से विशेष बातचीत की, जिन्होंने सावरकर और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़े कई तथ्य बेबाक रूप से सामने रखे.
प्रो. कपिल कुमार कहते हैं कि देश के कोई भी क्रांतिकारी जिसने देश के लिये अंग्रेजों से लड़ाई की हो, यातनाएं सही और हर तरह की कुर्बानी दी हो ऐसे लोगों को पक्ष-विपक्ष में बांटना उन क्रांतिकारियों का अपमान है. आज क्रांतिकारियों को हिन्दू मुसलमान या जाति के आधार पर बामट दिया जाता है, लेकिन जब वह देश की आजादी के लिये लड़ रहे थे तब किसी जाति, सम्प्रदाय या राजनीति के लिये नहीं लड़ रहे थे.
सावरकर की आलोचना इसलिये भी की जाती है कि उन्होंने अंग्रेजों की सेना में लोगों की भर्ती कराई, लेकिन यही सवाल गांधीजी पर भी उठ सकते हैं, क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध के समय उन्होंने भी गुजरात के गांव-गांव में जा कर अंग्रेजी सेना के लिये भर्ती कराने का काम किया था.
गांधीजी ने खुद लिखा है कि जिन गांवो में हम किसान आंदोलन के लिये गए थे, तब लोग हमारा फूल मालाओं के साथ स्वागत कर रहे थे, लेकिन जब अंग्रेजों की सेना में लोगों की भर्ती कराने के उद्देश्य से गए तो गांव वालों ने हमे गांव में नहीं घुसने दिया.
राष्ट्रीय अभिलेखागार में काम करते हुए इतिहासकार कपिल कुमार को तीन ऐसे पत्र मिले, जो आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के थे, जो महाराष्ट्र के थे. उन्होंने रिलीफ कमिटी को लिखा कि हम बैरिस्टर सावरकर के कहने पर अंग्रेजी सेना में भर्ती हुए थे और उनके निर्देशानुसार जैसे ही हमें मौका मिला हम आजाद हिन्द फौज में चले गए.
सन 1940 में नेताजी और सावरकर के बीच रत्नागिरी में मुलाकात भी हुई थी, लेकिन उसमें दोनों के बीच क्या चर्चा हुई इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. उसके बाद नेताजी देश से बाहर चले गए थे. अब यदि कोई यह दलील से कि नेताजी देश से चले गए तो गद्दार हो गए, तो उचित नहीं होगा. क्योंकि यदि वह न गए होते तो आजाद हिन्द फौज न बनी होती, जिसका देश की आजादी में बड़ा योगदान है.
इसी प्रकार जब सावरकर की बात होती है तो जब 1857 की क्रांति पर उनकी पहली पुस्तक आई, तब अंग्रेजी सरकार ने उस पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया. छुप छिपा कर उस किताब के अलग अलग भाषाओं में रूपांतरित अंक प्रकाशित हुए और उस समय बांटे गए. यह एक बड़ी बात थी क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के पहले संग्राम पर लिखने वाले वह पहले क्रांतिकारी थे.
1857 के संग्राम में हिंदुओं और मुसलमानों की सम्मिलित भागीदारी की सराहना भी सावरकर ने की थी. इसके विपरीत सैयद अहमद खान की बात करें, तो उन्हें मुस्लिम समुदाय का बड़ा नेता माना जाता है. उनकी किताब 'दास्ताने-गदर' में लिखा है कि जितने भी मुसलमानों ने इसमें हिस्सा लिया वह कसाई और जुलाहे थे. 1860 के आस पास आई किताब में सैय्यद अहमद ने उन मुसलमानों के लिये बदजात और बदमाश जैसे शब्दों का प्रयोग किया है, लेकिन उनकी वही लोग तारीफ करते हैं और सावरकर के बारे में गलत बात फैलाते हैं.
सावरकर द्वारा अंग्रेजी हुकूमत को दी गई दया याचिका की चर्चा बार बार होती है और उस आधार पर यह कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी और घुटने टेक दिये. इस पर इतिहासकार बताते हैं कि मर्सी पेटीशन कोई नई चीज नहीं थी. अंडमान जेल में जिस तरह के हालात थे. वह लोगों को मालूम नहीं है और वह उसे एक आम जेल की तरह मानते हैं, लेकिन वहां कैदियों को तमाम यातनाएं दी जाती थीं, जिसके बारे में आज लोग कल्पना भी नहीं कर सकते.