नई दिल्ली : 1980 के दशक से बड़े पैमाने पर मध्य भारत में जो आदिवासी माओवादी विद्रोह में शामिल हुए, उनमें से बेहद कम लोग ही शीर्ष नेता बने और जो आंध्र प्रदेश के प्रभुत्व वाले आंदोलन में ऊपरी और मध्यवर्ती जाति के तेलुगु नेताओं के साथ खड़े रहे. झारखंड के मिहिर बेसरा के अलावा बहुत कम स्थानीय आदिवासियों ने उग्रवादी आंदोलन का नेतृत्व किया. लेकिन इन सब में से किसी ने भी मडवी हिडमा जैसी छवि हासिल नहीं की.
शनिवार (3 अप्रैल, 2021) छत्तीसगढ़ के बीजापुर-सुकमा सीमा पर जोनागुड़ा के जंगलों के पास सुरक्षा बलों पर हुए हमले में हिडमा का नाम सामने आया है. इसमें गोंड समुदाय के 50 आदिवासी जो 'खूंखार' बटालियन 1'के प्रमुख शामिल हैं.
हिडमा को 'हिडमालु' और 'संतोष' नाम से भी जाना जाता है. सरकार के खुफिया सूत्रों के अनुसार इसे 'केंद्रीय समिति' और साथ ही सीपीआई के 'केंद्रीय सैन्य आयोग' दोनों का सदस्य माना जाता है. यह (माओवादी) - पार्टी में शक्तिशाली निर्णय लेने वाली इकाई है.
इस सबंध में प्रोफेसर कुमार संजय सिंह जो दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं का कहना है कि हिडमा का उदय एक जैविक आदिवासी नेतृत्व के उदय का संकेत है और सरकार को यह समझना चाहिए. यदि जनजातियों ने आंदोलन की बागडोर संभाली, तो यह संथाल उलगुलान की तरह आदिवासियों में अशांति पैदा कर सकता है, इसे नियंत्रित करना मुश्किल होगा.
माओवादी विद्रोह को ऐतिहासिक प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में अधिक समग्र तरीके से तेजी से देखने की आवश्यकता है, जो कश्मीर उग्रवाद और पूर्वोत्तर उग्रवाद के साथ, देश के सामने तीन सबसे अधिक दबाव वाली आंतरिक सुरक्षा स्थितियों का गठन करता है.
सिंह ने कहा कि भारत के आदिवासी इलाकों को माओवादी आंदोलन नहीं माना जा सकता है, क्योंकि मध्य भारत से लेकर पश्चिमी घाट तक फैले पूरे क्षेत्र में आदिवासी प्रतिरोध हमेशा से ही देखने को मिला है.
यह 2,500 किलोमीटर लंबा क्षेत्र है, जिसे रेड कॉरिडोर के रूप में भी जाना जाता है, जो कई जनजातियों और भीलों में शामिल जनजातियों द्वारा बसा हुआ है. यह जनजातियां मजबूरी के कारण आई हैं न की अपनी मर्जी से. उनका (आदिवासियों) मानना है कि यह शायद उनका अंतिम जीवन है.
सिंह बताते हैं कि राजनीतिक रूप से उभरने के कारण ऐतिहासिक विस्थापन की एक श्रृंखला के बाद जनजातियां अपने वर्तमान निवास स्थान पर पहुंच गई हैं.
शुरू में ये जनजातियां धर्मशाला क्षेत्रों में बस गईं, लेकिन राजनीतिक स्वरूप सामने आने लगे जिसके परिणामस्वरूप ये जनजातियां दुर्गम और दूरस्थ क्षेत्रों में चली गईं, लेकिन यह भी कि उन्हें आर्थिक पिछड़ेपन से नहीं बचा सका.