नई दिल्ली : इतिहास की प्रख्यात प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी का मानना है कि ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर चल रहा विवाद राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है. इसका इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है. ईटीवी भारत से बात करते हुए, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज की पूर्व चेयरमैन मृदुला मुखर्जी ने कहा कि अभी जो कुछ हो रहा है, चाहे वह ज्ञानवापी मस्जिद हो, मथुरा या अन्य कोई मुद्दा, हर जगह अचानक इतने सारे दावे और विवाद खड़े होना स्वाभाविक नहीं लगता. यह विश्वास करना मुश्किल है कि हर जगह स्थानीय लोग इन मामलों में रुचि ले रहे हैं. यह सब एक राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा है. यह पूरी तरह से राजनीतिक मामला है. इनमें से कोई भी दावा नया नहीं है.
वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद के अनिवार्य सर्वेक्षण के दौरान शिवलिंग मिलने के साथ ही मथुरा मंदिर और शाही ईदगाह का मामला भी कोर्ट में पहुंच गया है. इस मामले में विभिन्न इतिहासकार भी दो फाड़ हो गए हैं. ईटीवी भारत से बात करते हुए, प्रो कपिल कुमार कहते हैं कि बाबर के समय से लेकर शाहजहां के समय तक, वहां कोई मस्जिद नहीं थी. कलकत्ता में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी से प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार, मंदिर को गिराने के आदेश दिए गए थे. सिर-ए-आलमगिरी से स्पष्ट है कि औरंगजेब को उस समय मंदिर को गिराने की सूचना दी गई थी.
प्रोफेसर कुमार कहते हैं कि सवाल यह उठता है कि बनारस में इतनी मस्जिदें थीं. फिर औरंगजेब ने वहीं मस्जिद बनाने का फैसला क्यों किया, जहां पहले से ही एक मंदिर था. अब कई इस्लामी विद्वान दावा कर रहे हैं कि इन कमल प्रतीकों को तीसरे मुगल सम्राट अकबर ने दीन-ए-इलाही में अपनाया था. यही इस्लामी विद्वान एक तरफ दीन-ए-इलाही की निंदा करते हैं कि इसमें हिंदू धर्म के प्रतीक शामिल हैं. और दूसरी तरफ मस्जिद की रक्षा के लिए दीन-ए-इलाही का सहारा ले रहे हैं. इस्लामी विद्वानों द्वारा दिए गए बयान के विपरीत, कुरान में उल्लेख किया गया है कि पहले से मौजूद किसी भी धार्मिक संरचना पर मस्जिद नहीं बनाई जा सकती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई चर्च को मस्जिदों में परिवर्तित किया जा रहा था. स्पेन और तुर्की में भी यह हो रहा था. हागिया सोफिया का हालिया उदाहरण है.