नई दिल्ली : नवंबर 2001 में काबुल में भारत के डिप्लोमेटिक अफेयर्स इंचार्ज के तौर पर काबुल को तालिबानी कब्जे से बाहर आने के बाद काबुल में भारतीय दूतावास को दोबारा खुलवाने वाले और 2010 से 2013 तक अफगानिस्तान में भारत के एंबेसडर रह चुके गौतम मुखोपाध्याय का कहना है कि भारत सरकार ने जो इवेक्युएशन को लेकर कदम उठाए हैं वह बहुत ही सही है, क्योंकि किसी को भी यह पहले से पता नहीं था कि अचानक तीन-चार दिनों के अंदर इतना बड़ा परिवर्तन हो जाएगा.
उन्होंने कहा कि जहां तक सवाल भारत सरकार की शुरुआती चुप्पी का है, तो सरकार अफगानिस्तान में इतनी बदतर व्यवस्था की कल्पना नहीं कर रही थी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई भी बड़ा निर्णय लेने से पहले विचार विमर्श जरूरी है. इसलिए सरकार ने जो इवेक्युएशन का कदम उठाया है वह बहुत सही है, उन्होंने कहा कि सही वक्त में हमने कंधार से इवेक्युएट किया, सही वक्त में हमने काबुल से इवेक्युएट किया, ये स्थिति किसी को भी पहले से मालूम नहीं थी.
पूर्व राजनयिक गौतम मुखोपाध्याय से बातचीत अचानक निर्णय लेना थोड़ा मुश्किल
उन्होंने कहा कि सही स्थिति बहुत ज्यादा किसी को पता नहीं है, जो मीडिया रिपोर्ट्स आ रही हैं उसी से सरकार अंदाजा लगा रही है. लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट सरकार अंदर खाने जरूर तैयार कर रही है, इसलिए ऐसे समय में अचानक निर्णय लेना थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि किसी को पता नहीं था कि एक-दो दिन के अंदर काबुल पूरी तरह तालिबानी के हाथ में चला जाएगा.
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इस सवाल पर कि वह अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके हैं उनके हिसाब से अभी भारत सरकार का क्या रुख होना चाहिए, क्या विकास परियोजनाएं चलाई जानी चाहिए? क्या तालिबान पर भरोसा किया जा सकता है ? पर गौतम मुखोपाध्याय का कहना है कि अभी जो हालात हैं उसमें तो इन परियोजनाओं को आगे चलाने में काफी मुश्किलें आएंगी जब तक स्थिरता और सुरक्षा की गारंटी ना हो खासतौर पर भारतीयों की सुरक्षा की गारंटी ना हो तब तक किसी भी परियोजना को वहां पर नियमित करना बहुत मुश्किल होगा, लेकिन जहां तक बात एजुकेशनल और मेडिकल ट्रीटमेंट की है, वह सहायता जो भारत देता रहा है उसे जारी रखना चाहिए. क्योंकि अफगानिस्तान से हमारा बहुत पुराना और गहरा नाता है, जो पीपुल टू पीपुल कनेक्ट है और जो अफगानी लोगों को मदद दी जा रही थी चाहे वह स्वास्थ्य की हो या शिक्षा कि उसे बंद नहीं करनी चाहिए. ऐसा मेरा मानना है, क्योंकि भारत को दिक्कत अफ़गानों से नहीं है परेशानी तालिबानी से है.
अफगानिस्तान पूरी तरह से शांत नहीं था
जब वह अफगान में राजदूत थे तो क्या हालात थे, क्या तालिबानी पूरी तरह से खत्म हो चुका था, या फिर उनका कुछ प्रभाव था ? पर मुखोपाध्याय का कहना है डर उस समय भी था, लेकिन उस समय सुरक्षा अफगानी सेना और बाहर की जो सेना थी उससे थी, बावजूद उस समय भी दूतावास पर अटैक हुआ था इसलिए यह कहना कि अफगानिस्तान पूरी तरह से शांत था ऐसा नहीं कह सकते, लेकिन हां, वहां पर मिशन चल रहा था और अफगानी सेना सक्षम थी.
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मुखोपाध्याय ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि अभी हम कह सकते हैं कि तालिबानी यह कोशिश कर रहे हैं जब तक उनकी मांगें मानी नहीं जा सकती या फिर अंतरराष्ट्रीय प्लेटफार्म पर जब तक उन्हें थोड़ा महत्व नहीं मिल जाता तबतक अपनी इमेज को लेकर थोडी चिंता कर सकते हैं, लेकिन यह मात्र दिखावा होगा या तालिबानी अंदर से परिवर्तन लाने की कोशिश करेंगे, यह भी कहना बहुत मुश्किल होगा. क्योंकि उनकी पृष्ठभूमि ऐसी रही नहीं है कि वह सॉफ्ट अप्रोच अपनाएं, लेकिन तालिबानियों की कार्यशैली तीन बातों के आधार पर देखनी होगी
एक तो उनकी डिप्लोमेसी काफी स्ट्रांग है दूसरी चीज प्रोपेगेंडा वार, वह बहुत ज्यादा करते हैं और तीसरा डिसेप्शन जो डिसेप्शन उन्होंने अडॉप्ट किया है टैक्टिस ऑफ पॉलिटिक्स, टैक्टिस ऑफ वार, टैक्टिस ऑफ लॉ ये बहुत सक्षम है.
गौतम मुखोपाध्याय का कहना है कि जो भी परियोजनाएं हैं वह चलती रहे ना या नहीं यह तो सरकार थोड़े दिन रुक कर ही कोई निर्णय ले सकती है, लेकिन जो डिप्लोमेसी की बातें हैं उसे बंद नहीं होनी चाहिए. उनके अफगानी कल्चर पर अटैक होगा, शिक्षा की बातें, स्वस्थ्य की सहायता और सबसे मुख्य बात जो है दिल से दिल का रिश्ता, भारत और अफगानिस्तान के बीच वह खत्म नहीं होना चाहिए.