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सहायता प्राप्त करना मौलिक अधिकार नहीं है : न्यायालय

शीर्ष अदालत ने कहा कि सहायता प्राप्त करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. इसलिए किसी मामले में अगर सहायता रोकने का नीतिगत फैसला लिया जाता है तो कोई संस्थान इसे अधिकार का विषय बताकर प्रश्न नहीं खड़ा कर सकता.

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Published : Sep 27, 2021, 9:57 PM IST

नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि सहायता प्राप्त करना मौलिक अधिकार नहीं है और सरकार को शिक्षण संस्थानों को मदद देने के बारे में फैसला करने के लिए वित्तीय बाधाओं तथा कमियों जैसे कारकों को संज्ञान में लेना चाहिए. शीर्ष अदालत ने कहा कि जब सहायता प्राप्त संस्थानों की बात आती है तो अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक संस्थान के बीच कोई अंतर नहीं हो सकता.

न्यायमूर्ति एस के कौल और न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश की पीठ ने कहा, 'सहायता प्राप्त करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. इसलिए किसी मामले में अगर सहायता रोकने का नीतिगत फैसला लिया जाता है तो कोई संस्थान इसे अधिकार का विषय बताकर प्रश्न नहीं खड़ा कर सकता.'

शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर कोई संस्थान इस तरह की सहायता संबंधी शर्तों को स्वीकार नहीं करना चाहता और उनका पालन नहीं करना चाहता तो अनुदान से इनकार करने का फैसला लेने का अधिकार उसे है.

शीर्ष अदालत की टिप्पणी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली उत्तर प्रदेश की अपील को स्वीकार करते हुए आई है, जिसमें कहा गया है कि इंटरमीडिएट शिक्षा अधिनियम, 1921 के तहत बनाए गए विनियमन 101 असंवैधानिक हैं.

शीर्ष अदालत ने कहा कि यह माना जाता है कि सहायता प्राप्त करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, इसे लागू करने में किए गए निर्णय को चुनौती केवल प्रतिबंधित आधार पर होगी. इसलिए, ऐसे मामले में भी जहां सहायता वापस लेने का नीतिगत निर्णय लिया जाता है, कोई संस्था इस पर अधिकार के मामले में सवाल नहीं उठा सकती है. हो सकता है, ऐसी चुनौती तब भी एक संस्था के लिए उपलब्ध होगी, जब एक संस्थान को दूसरे संस्थान के मुकाबले अनुदान दिया जाता है, जो समान रूप से रखा जाता है. इसलिए, सहायता के अनुदान के साथ शर्तें लागू होती हैं.

पीठ ने कहा कि अगर कोई संस्था इस तरह की सहायता से जुड़ी शर्तों को स्वीकार और उनका पालन नहीं करना चाहती है, तो वह अनुदान को अस्वीकार करने और अपने तरीके से आगे बढ़ने के लिए तैयार है.

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पीठ ने कहा कि एक नीतिगत निर्णय को जनहित में माना जाता है, और एक बार किया गया ऐसा निर्णय चुनौती देने योग्य नहीं है, जब तक कि प्रकट या अत्यधिक मनमानी न हो, एक संवैधानिक अदालत से अपने हाथ दूर रखने की उम्मीद की जाती है.

पीठ ने कहा कि कार्यकारी शक्ति एक विधायी शक्ति का अवशेष है, इसलिए उक्त शक्ति का प्रयोग, यानी आक्षेपित विनियमन में संशोधन केवल अनुमान के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है.

(भाषा)

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