नई दिल्ली :यूक्रेन संघर्ष को लेकर भारत ने रणनीतिक स्वायत्तता दिखाते हुए तटस्थ रहकर सभी पक्षों से संतुलन बनाए रखा है, लेकिन भविष्य में उसे चुनौतीपूर्ण समय का सामना करना पड़ सकता है. अगर अमेरिका ताइवान मुद्दा उठाने में सफल रहता है तो भारत के साउथ ब्लॉक स्थित राजनयिक प्रतिष्ठानों को मुश्किल होगी. यदि एक ही समय में यूक्रेन और ताइवान दो मोर्चे खुलते हैं तो भारत के लिए कशमकश की स्थिति होगी. उसे रूस और अमेरिका दोनों के साथ मैत्रीपूर्ण शर्तों पर रहने की अपनी वर्तमान स्थिति को त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
यूक्रेन में रूस द्वारा किए जा रहे कथित 'युद्ध अपराधों' पर पश्चिम दुनियाभर का ध्यान खींच रहा है. इसे लेकर अमेरिका-रूस टकराव (US-Russia confrontation)की संभावना भी बढ़ती जा रही है. जिस तरह से काला सागर में रूसी नौसेना के जहाज 'मोस्कवा' को बैलिस्टिक मिसाइल से हमला कर तबाह कर दिया गया, उसके बाद इसके आसार बढ़ गए हैं. यूक्रेन को पश्चिम बराबर हथियारों की आपूर्ति कर रहा है.
रूस और चीन के जिस तरह करीबी संबंध हैं उसे देखते हुए यही लग रहा है कि रूस का करीब होने के कारण भारत की स्थिति भी अस्थिर होगी. जो पहले से ही एक आर्थिक और रणनीतिक गठबंधन का आकार ले रहा है. भारत और चीन के बीच पहले से ही पूर्वी लद्दाख और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर गतिरोध चल रहा है. दोनों देशों ने पिछले दो वर्षों में अभूतपूर्व रूप से सैन्य कर्मियों और उपकरणों की तैनाती एलएसी पर कर रखी है. भारत और चीन के बीच शत्रुता को कम करने के लिए रूस मध्यस्थता करे इसके भी आसार नहीं हैं.
जिस दिन युद्धपोत मोस्कवा डूबा अमेरिकी कांग्रेसियों का छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल पार्टी लाइनों को तोड़कर अमेरिकी सीनेट विदेश संबंध समिति के अध्यक्ष बॉब मेनेंडेज़ के नेतृत्व में अघोषित यात्रा पर ताइपे हवाई अड्डे पर उतरा. इस प्रतिनिधिमंडल में प्रभावशाली रिपब्लिकन सांसद लिंडसे ग्राहम (Republican Lindsey Graham) भी शामिल थे, जिन्होंने शुक्रवार को ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन (Tsai Ing-wen) से मुलाकात की.