कोलकाता : प. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में पांच ऐसे गांव हैं, जहां के निवासियों के पास सभी दस्तावेज हैं, लेकिन उन्हें जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है. न तो वे जमीन खरीद सकते हैं, और न तो वे इसे बेच सकते हैं. यह अपने आप में बहुत ही अजीबो-गरीब है कि उनके पास मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड भी हैं. फिर भी वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें जमीन का अधिकार नहीं है. इस आधार पर उन्हें सरकार की किसी भी योजना का फायदा भी नहीं मिल पा रहा है.
ये सारे गांव भारत-बांग्लादेश की सीमा पर जलपाईगुड़ी जिले में हैं. यहां की आबादी 10 हजार से अधिक है. जिनके पास भी मतदाता पहचान पत्र है, वे चुनाव में हिस्सा ले सकते हैं. वे अपना जनप्रतिनिधि भी चुनते हैं. लेकिन बात जब जमीन पर अधिकार की आती है, तो उनके हाथ खाली हैं. वे न तो कोई भी जमीन खरीद सकते हैं और न ही बेच सकते हैं.
यहां इसका उल्लेख करना बहुत जरूरी है कि 2015 के अगस्त महीने में जब भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा को लेकर समझौता हो रहा था, तब यह एरिया भारत के हिस्से में आया. ये हैं - काजलदिघी, चिलाहाटी, बाराशशी, नवतरिदेबोत्तर और पधनी. ये सभी दक्षिण बेरुबाड़ी ग्राम पंचायत में स्थित हैं.
दरअसल, इस समस्या की शुरुआत आजादी के समय से ही हो गई थी. इस इलाके पर पाकिस्तान ने दावा ठोका था. उसके अनुसार भारत और पाकिस्तान के बीच इस ओर रेडक्लिफ लाइन ने विभाजन निर्धारित कर दिया था. पाकिस्तान दक्षिण बेरुबाड़ी पर दावा कर रहा था. लेकिन नेहरू नहीं माने. दोनों देशों के बीच 1947-64 तक बातचीत चलती रही. 1957 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने वाले फिरोज खान नून ने इस समस्या को और अधिक जटिल बना दिया.
1958 के समझौते के अनुसार दक्षिण बेरुबाड़ी को दो भागों में विभाजित किया गया. लेकिन द. बेरुबाड़ी के लोगों ने विरोध की आवाज बुलंद कर दी. उसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया. जटिल कानूनी स्थिति से निबटने के लिए 1960 में भारत ने इस बाबत संविधान में नौंवां संशोधन पेश किया. इस पर कोई भी निर्णायक पहल हो पाती, उसके पहले ही भारत और चीन के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई. उसके बाद 1964 में नेहरू गुजर गए. फिर अगले साल यानी 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो गया.
ऐसे में यह मामला लगातार टलता गया. इन इलाकों में सीमा निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया होती है. ये छोटे-छोटे पॉकेट हैं. विवाद होने की वजह से इस काम पर किसी ने प्राथमिकता के आधार पर विचार भी नहीं किया. लंबे समय बाद मोदी सरकार ने 2015 में बांग्लादेश के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट को अंतिम रूप प्रदान किया. बांग्लादेश की ओर से प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हस्ताक्षर किए थे.