नई दिल्ली:हर साल नई जनवरी नया सपना दिखाती है और गुजरता दिसंबर बीते वक्त का आईना. कोरोना काल में बीते दो सालों में हमने नए सपने भी देखे और गुजरे वक्त के आईने भी. दोनों बार हमारी शक्ल पर लापरवाहियों की गर्द के सिवा कुछ नहीं दिखा.
कोरोना ने बता दिया कि हमारी प्राथमिकताएं कहां होनी चाहिए थी और हम किन बातों को प्राथमिक बना बैठे हैं. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इतनी बड़ी आबादी को संभालने वाले महानगरों में बीमारी फैलने पर हमें संभालने वाला स्वास्थ्य महकमा पंगु नजर आएगा. देश की राजधानी में ही ऑक्सीजन के सिलेंडर के लिए मारामारी हो जाएगी. अस्पतालों में एक अदद बेड नहीं मिलने से अपनों की सांसें टूट जाएंगी. मरने के बाद भी लाशें अंतिम संस्कार के लिए कतारों में लगाई जाएंगी.
आंकड़ों की नजर से देख लीजिए, जहां देश में अब तक कोरोना तीन करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में ले चुका है और चार लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. गुजरते दिसंबरों के आईने में हमने अपनी जिंदगियों की ये स्याह हकीकतें देखी हैं. जहां परिवारों के चिराग़ हमेशा के लिए बुझ गए. हंसते-खेलते परिवारों में अनाथ बच्चों की मायूसी का मातम पसरा है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग का सरकारी आंकड़ा है कि दिल्ली में ही कोरोना पांच हजार 640 बच्चों से माता और पिता का साया छिन कर उन्हें अनाथ कर गया. 273 ऐसे बच्चें हैं जिनके माता या पिता में से कोई एक परिजन असमय मौत का शिकार बन गया.
देश में चुनावी दौर में नेता और त्योहारों में जनता अपना विवेक खो देती है. कोरोना के मामले में सरकार, सिस्टम के आश्वासनों पर यकीन करना मुश्किल हैं. इनके दावों और वादों पर निर्भर रहने के बजाए वक्त खुद सतर्क हो जाने का है. मास्क लगाना वैक्सीन से भी बेहतर ईलाज है, लेकिन अभी भी बड़ी तादाद में लोग इस समझदारी को नहीं अपना रहे हैं और ऐसे लोगों को सरकार की पाबंदियां और नियम-कायदे भी डरा नहीं पा रहे हैं. ये हाल तो तब है जब दिल्ली में कोरोना से अब तक 25 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और 14 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं. लेकिन अब भी न दिल्ली की मंडियों में मास्क की सावधानी दिख रही है और न ही दिल्ली के बाजार, मेट्रो, बस स्टेशनों पर सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल है.