नई दिल्ली: 19वीं सदी की शुरुआत, हमारे देश में अंग्रेजी शासकों (Rani Chennamma British rulers) की हुकूमत आग की तरह फैल रही थी, अंग्रेजों की इन ओछी नीति को हमारे भारतीय राजा अभी तक समझ नहीं पाए थे, लेकिन उस समय कित्तुरु की रानी चेनम्मा (Kitturu Rani Chennamma) ने अंग्रेजों की इस बदनीयत को भांप लिया और अपनी वीरता दिखाते हुए अकेले ही उनके खिलाफ लड़ाई छेड़ दी.
रानी चेनम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही है. वही स्थिति, वही संघर्ष और वही वीरता भी और शायद इसलिए लिए ही उन्हें 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है. चेन्नम्मा का अर्थ है- सुंदर कन्या'. इस सुंदर बालिका का जन्म 23 अक्तूबर, 1778 में कर्नाटक में हुआ था. पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने इनका पालन-पोषण पुत्रों की भांति किया था. उन्हें संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू भाषा में शिक्षा दी गई थी. साथ ही राजकुमारों के भांती घुड़सवारी भी सिखाई थी. चेनम्मा अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला में भी पारंगत थी. उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई, जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं.
उनका एक बेटा भी था. चेनम्मा अपने वैवाहिक जीवन में बहुत खुश थीं, लेकिन फिर 1824 में उनके बेटे की मौत हो गई और इसके बाद से शुरू हुई, वीरता और बलिदान की एक ऐसी दास्तां, जिसने दुनिया को बहादुरी का मतलब सिखाया. बेटे की मृत्यु के बाद रानी चेनम्मा ने शिवलिंगप्पा (Shivlingappa Rani Chennamma) को गोद लिया और उसे ही अपना वारिस घोषित किया, लेकिन यह बात ब्रिटिश शासकों के गले नहीं उतरी, उन्होंने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया, लेकिन चेनम्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया. उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन (Lieutenant Governor Lord Elphinstone) को एक पत्र भेजा, जिसमें कित्तुरु के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया, लेकिन चेनम्मा के आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया.