नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के नतीजों के बाद बीजेपी ने राहत की सांस ली है. 37 साल बाद भारतीय जनता पार्टी ने दोबारा सरकार बनाकर इतिहास रच दिया. साथ ही केंद्र में बैठे बीजेपी नेताओं की 2024 में जीत की आस जगा दी है. किसान आंदोलन और महंगाई के साये में हुए विधानसभा चुनाव के रिजल्ट कई मायनों में हैरत भरा रहा. पश्चिम यूपी में भगवा पार्टी को उतना अधिक नुकसान नहीं हुआ, जितनी किसान आंदोलन के दौरान आशंका जताई जा रही थी. खबर लिखे जाने तक इस चुनाव की खासियत यह रही कि ब्रांड योगी मजबूती के साथ उभरकर सामने आया. बीजेपी गठबंधन ने करीब 273 सीट जीतकर यह जता दिया कि अगले 5 साल तक देश के सबसे बड़े सूबे में योगी का बुल्डोजर चलेगा.
इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव खाली हाथ नहीं रहे. उनके खाते में भी 66 और सीटें आईं और वह 113 सीट लेकर मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरे. उनके साथ उनके गठबंधन के साथी आरएलडी ने भी 9 सीटें जीतकर अपने अस्तित्व की रक्षा कर ली. सपा गठबंधन को कुल मिलाकर 125 सीटों पर कब्जा कर लिया. अब विपक्ष में कांग्रेस के दो और बीएसपी के एक विधायक भी रहेंगे. बीजेपी को 2017 के मुकाबले 59 सीटों का नुकसान हुआ है. मगर उनके लिए संतोष का विषय यह है कि अब पांच साल तक यूपी बीजेपी के खाते में बना रहेगा. इस दौरान 2024 के लोकसभा चुनाव भी होंगे. अगर जनता का मूड इसी तरह बना रहा तो लोकसभा में वह बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी.
यूपी में फिर योगी सरकार, 37 साल बाद बीजेपी ने रचा इतिहास इस चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश में आरएलडी के युवा नेता जयंत चौधरी को भी थोड़ी राहत मिल गई. वह जाट नेता और अजित सिंह के उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहे. मगर सपा को गठबंधन भी फायदा हुआ. वेस्टर्न यूपी के जाटलैंड कहे जाने वाले छह जिलों में आरएलडी ने स्थिति मजबूत हुई. 2017 में आरएलडी को महज एक सीट मिली थी. मगर इस बार पार्टी ने परंपरागत गढ़ मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और मेरठ में सीटें जीत लीं. हालांकि किसान आंदोलन के कारण जबर्दस्त विरोध के बीच बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में भी बढ़त हासिल की. मुजफ्फरनगर जिले की 6 सीटों में 4 पर भाजपा दो पर राष्ट्रीय लोकदल ने कब्जा किया. बिजनौर की 8 सीटों में से 4 पर भाजपा और 4 पर सपा ने बाजी मारी. मेरठ की 7 सीटों में 3 सीट पर भाजपा और 4 पर गठबंधन को बढ़त मिली. शामली की 3 पर रालोद ने जीत दर्ज कर ली. बागपत में तीन में एक सीट पर भाजपा, दो पर रालोद ने जीत दर्ज की. सहारनपुर में 7 सीटों मे 5 पर भाजपा और 2 पर सपा गठबंधन आगे रहा.
अखिलेश और जयंत की जोड़ी के प्रदर्शन में सुधार, लेकिन योगी को मात देने की कोशिश नहीं हुई कामयाब (फाइल फोटो) नतीजों के आधार पर यह सामने आया कि पश्चिम यूपी में किसान आंदोलन और जाटों को गुस्से का असर रहा. बीजेपी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया, हालांकि जाट लैंड माने जाने वाले 6 जिलों बागपत, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, बिजनौर और शामली में भाजपा समाजवादी गठबंधन के पीछे ही रही. किसान आंदोलन का असर इन जिलों में दिखा. इसका परिणाम यह हुआ कि एक बार फिर जयंत चौधरी को जाट और मुसलमानों ने चौधरी अजित सिंह का उत्तराधिकारी होने पर मुहर लगा दी. अगले लोकसभा चुनाव में आरएलडी की इस जीत की गूंज सुनाई पड़ सकती है. जिस कैराना में गृह मंत्री अमित शाह ने जनसंपर्क किया था, वहां समाजवादी पार्टी के नाहिद हसन ने जीत दर्ज कर ली. यानी कैराना दंगों पर इस चुनाव ने मरहम लगा दिया.
कभी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती के पास सिर्फ एक विधायक बचा हालांकि मुस्लिम वोटरों के एकतरफा वोटिंग की चर्चा के बाद वोटों का ध्रुवीकरण पूरे उत्तरप्रदेश में हुआ. वेस्टर्न यूपी भी इससे अछूता नहीं रहा, इसलिए वहां बीजेपी काफी हद तक वोटों के ध्रुवीकरण में सफल हो गई. बीएसपी का वोट बैंक खुले तौर से बीजेपी के साथ चला गया. बहुजन समाजवादी पार्टी के वोटर रहे जाटव वोटरों ने भी बीजेपी का साथ दिया. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मायावती के समर्थक अपनी पार्टी को भले ही जीत नहीं दिला पाए, मगर समाजवादी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचा गए. बीएसपी के मुस्लिम कैंडिडेट ने अल्पसंख्यक वोटरों को प्रभावित किया. अगर रालोद और समाजवादी पार्टी गठबंधन ने मुस्लिम कैंडिडेट के बजाय जाट बिरादरी पर दांव लगाया होता तो कई सीटें उनके खाते में आ सकती थीं.
प्रियंका की मुहिम 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का नहीं मिला लाभ बीजेपी ने चुनाव जीतने के लिए नॉन परफॉर्मर विधायकों और मंत्रियों के टिकट काटने का फार्मूला अपनाया. इसके तहत 95 से अधिक विधायकों के टिकट काटे गए. नतीजा कई क्षेत्रों में बीजेपी के विधायकों को अप्रत्याशित जीत मिली. हालांकि बीजेपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और सतीश द्विवेदी जैसे सीनियर नेताओं को हार का सामना करना पड़ा.
पूर्वी उत्तरप्रदेश में बीजेपी को बड़ी सफलता मिली. यहां गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के उतरने के कारण माहौल भाजपा के पक्ष में बना. सेंट्रल यूपी में बीजेपी ने बाजी मारी है. इस चुनाव में सबसे अधिक हैरत लखीमपुर खीरी को लेकर रही, इस जिले की आठ सीटों पर बीजेपी ने एकतरफा जीत दर्ज की. यानी कांग्रेस ने लखीमपुर हिंसा की जो तस्वीर चुनाव से पहले खीची थी, अब उसके मायने ही खत्म हो गए हैं. कांग्रेस के लिए यह चुनाव निराशाजनक रहा. दो सीटों पर जीत के बाद अब प्रदेश में उसकी मजबूत विपक्ष की साख भी खत्म हो गई है. खुद प्रियंका गांधी ने चुनाव अभियान का नेतृत्व किया था यानी अब यूपी में कांग्रेस को स्थानीय सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता बनी रहेगी.
पार्टी छोड़ने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य को मिली करारी मात (फाइल फोटो) अब बीएसपी की बात, सही मायनों में किसी पार्टी का इस यूपी विधानसभा चुनाव में नुकसान हुआ है, तो वह बहुजन समाजवादी पार्टी ही है. 2007 में पूर्ण बहुमत से सत्ता चलाने वाली मायावती के पास सिर्फ एक विधायक है. अब उनकी आवाज विधानसभा में भी अनसुनी रह जाएगी. जिस तरह बुंदेलखंड और वेस्टर्न यूपी के नतीजे आए हैं,, उससे लगता है कि बीएसपी के कोर वोटर जाटव समुदाय ने भी पार्टी का साथ छोड़ दिया है. हालांकि अभी वोट का विश्लेषण होना बाकी है.
इस चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी के साथ 9 अन्य विधायकों ने पार्टी छोड़ दी थी. ये सभी नेता खास ओबीसी जाति का नेतृत्व हासिल करने का दावा करते थे. मगर धर्म सिंह सैनी को छोड़कर तकरीबन सभी नेता चुनाव हार गए. जाति के नाम पर बनी सुभासपा और उसके नेता ओमप्रकाश राजभर भी जाति के एकमात्र नेता होने का दावा नहीं कर पाएंगे. वह अपनी चार सीटों में से सिर्फ एक सीट बचा पाए. दूसरी ओर बीजेपी गठबंधन का हिस्सा बनकर अनुप्रिया पटेल का अपना दल (एस) और निषाद पार्टी ने अपना कद बड़ा कर लिया. एनडीए के पार्टनर अपना दल ( सोनेलाल) को 12 सीटों पर विजयी रहीं. उसे 3 सीटों का फायदा हुआ. निषाद पार्टी को भी पहली बार 6 सीटें मिलीं.
मुद्दे की बात करें तो यूपी में समाजवादी पार्टी के गठबंधन ने पुरानी पेंशन प्रथा लागू करने का वादा किया. बेरोजगारी और नौकरियों में के मुद्दे भी बनाए. बाबा के बुल्डोजर पर भी सवाल खड़े किए. इसके जवाब में बीजेपी ने विकास कार्यों को गिनवाना शुरू किया. बुंदेलखंड और पूर्वांचल में तो नरेंद्र मोदी समेत सभी नेताओं ने गरीबों को दिए गए मुफ्त राशन की याद दिलाई. चर्चा यह भी है कि बीएसपी के कोर वोटरों का रुझान बीजेपी के तरफ रहा. यह काम कर गया. 'चुपचाप कमल छाप' का नारा सुर्खियों में तो नहीं रहा, मगर इसने अपना काम कर दिया. इसके अलावा बीजेपी गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को एक बार फिर अपने पक्ष में रखने में सफल हुई.
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समाजवादी पार्टी के पास उनका यादव वोटर लौट गया. मगर समाजवादी पार्टी से इस चुनाव में एक बड़ी चूक हुई. उसने खुद को जीत का दावेदार बताते हुए मुसलमानों से वोट नहीं बांटने की अपील कर दी. कई मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इस पर अमल करने का फतवा भी जारी कर दिया. इसका नतीजा रहा कि मुस्लिम वोटरों ने समाजवादी पार्टी और उसके गठबंधन को जीत तो दिलाई मगर बहुमत में रोड़ा साबित हुए. इसके जवाब में चाहे-अनचाहे हिंदू वोटर भी गोलबंद हो गए और नतीजा सामने है.
इस विधानसभा चुनाव में बहुजन समाजवादी पार्टी ने सर्वाधिक 403 विधानसभा क्षेत्रों में कैंडिडेट उतारे थे. कांग्रेस ने भी 'लड़की हूं,लड़ सकती हूं' के नारे के साथ 400 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था. बीजेपी 370 सीटों पर चुनाव लड़ी, बाकी की 34 सीटें उसने अपने सहयोगी अपना दल (एस) और निषाद पार्टी को दे दी. इसके अलावा निषाद पार्टी के कई कैंडिडेट बीजेपी के टिकट पर भी लड़े. समाजवादी पार्टी ने 346 सीटों पर कैंडिडेट उतारे थे. पश्चिम यूपी में उसने राष्ट्रीय लोकदल से समझौता किया और आरएलडी के खाते में 26 सीटें आईं. पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी ने अपना दल (कमेरावादी) को और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) से समझौता किया था. सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 103 विधानसभा क्षेत्र में प्रत्याशी खड़े किए थे, मगर उन्हें एक भी सीट पर सफलता नहीं मिली. मुस्लिम वोटरों ने भी उनका साथ नहीं दिया.