नई दिल्ली :सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा है कि कोई अदालत किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा की घोषणा केवल इसलिए अपनी राय के आधार पर नहीं कर सकती कि वह शिक्षित है और कहा जाता है कि वह ईश्वर-भयभीत है, इससे अपने आप में कोई सकारात्मक प्रतिष्ठा नहीं बनेगी. इस संबंध में न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश (justices M.M. Sundresh) और न्यायमूर्ति जेबी. पारदीवाला (justices J.B. Pardiwal) की पीठ ने कहा कि प्रतिष्ठा को एक पहचाने जाने योग्य समूह के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए. पीठ ने कहा कि चरित्र का निर्माण तब होता है जब प्रतिष्ठा अर्जित की जाती है और चरित्र से किसी की प्रतिष्ठा का निर्माण हो सकता है लेकिन दोनों अलग और भिन्न हैं. प्रतिष्ठा इस प्रकार आंतरिक तथ्यों का हिस्सा बनती है इसलिए इसे उन व्यक्तियों की राय के रूप में साबित करना आवश्यक है जो इसे तदनुसार बनाते हैं. जब प्रतिष्ठा को एक प्रासंगिक तथ्य के रूप में लिया जाता है, तो इसका साक्ष्यात्मक मूल्य प्रतिबंधात्मक और सीमित हो जाता है.
न्यायमूर्ति सुंदरेश ने पीठ के लिए लिखे निर्णय में कहा कि यह वास्तव में सबूत का एक कमजोर टुकड़ा है जब यह किसी मुद्दे पर तथ्य से संबंधित हो जाता है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा को चुनौती देने से संबंधित था. याचिकाकर्ता हरविंदर सिंह को हत्या और बलात्कार के प्रयास के लिए दोषी ठहराया गया था. उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा बरी किए जाने के आदेश को पलट दिया था. उच्च न्यायालय ने मुख्य रूप से एक गवाह के बयान पर भरोसा किया, जो अदालत की नज़र में एक शिक्षित और ईश्वर से डरने वाला व्यक्ति था. इसलिए कोर्ट ने उनकी गवाही स्वीकार कर ली.
शीर्ष अदालत ने 13 अक्टूबर को दिए गए एक फैसले में कहा कि कानून की अदालत किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को केवल अपनी राय के आधार पर घोषित नहीं कर सकती क्योंकि कोई व्यक्ति शिक्षित है और कहा जाता है कि वह ईश्वर-भयभीत है, यह अपने आप में नहीं होगा. पीठ ने कहा कि चरित्र और प्रतिष्ठा में अंतर्संबंध का तत्व होता है और प्रतिष्ठा चरित्र के सामान्य लक्षणों पर आधारित होती है और दूसरे शब्दों में, चरित्र को प्रतिष्ठा में शामिल किया जा सकता है. पीठ ने कहा कि अदालतों से किसी व्यक्ति की केवल पृष्ठभूमि से प्रभावित होने की उम्मीद नहीं की जाती है, खासकर अपीलीय मंच के रूप में कार्य करते समय जब उसका आचरण, एक प्रासंगिक तथ्य होने के नाते, गंभीर संदेह पैदा करता है. दूसरे शब्दों में साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के तहत एक गवाह का आचरण, एक गवाह की प्रतिष्ठा तय करने, निर्धारित करने और साबित करने के लिए एक प्रासंगिक तथ्य है. पीठ ने जोर देकर कहा कि जब आचरण यह दर्शाता है कि यह सामान्य मानव व्यवहार के दृष्टिकोण से अप्राकृतिक है तो तथाकथित प्रतिष्ठा पीछे रह जाती है.