नई दिल्ली: तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) ने उच्चतम न्यायालय से शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखने वाले उसके सात नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार करने का सोमवार को अनुरोध किया. पार्टी ने दलील दी है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे से अनुसूचित जाति(एससी), अनुसूचित जनजाति(एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणियों के गरीबों को बाहर रखने से भेदभाव को वैधता मिलती है.
द्रमुक ने कहा है कि फैसले में त्रुटि स्पष्ट है, क्योंकि यह इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा 1992 में सुनाये गये ऐतिहासिक फैसले को सीधे तौर पर निष्प्रभावी करता है. उक्त फैसले को 'मंडल निर्णय' के रूप में जाना जाता है. पार्टी ने कहा कि 2019 में पेश किये गये ईडब्ल्यूएस आरक्षण को बरकरार रखने की घोषणा करने वाली संविधान पीठ के सभी पांच न्यायाधीशों ने यह जवाब दिया था कि 103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता और इस तरह इसने 1992 के फैसले को निष्प्रभावी कर दिया, जिसमें कहा गया था कि आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं दिया जा सकता.
पुनर्विचार याचिका के अनुसार, 'यह कहा गया है कि यह स्पष्ट रूप से त्रुटि है, क्योंकि यह इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा 1992 में दिये गये फैसले को सीधे तौर पर निष्प्रभावी करता है, जिसमें यह घोषणा की गई थी कि आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं हो सकता और इस तरह की व्याख्या अनुच्छेद 14,15 (1) और 16(1) के आधार पर की गई थी, न कि केवल अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के आधार पर.'
पार्टी ने कहा कि इसी तरह संविधान पीठ के हालिया फैसले में न्यायाधीशों के बहुमत वाले फैसले में मुद्दा-तीन पर प्रकट किये गये विचार त्रुटिपूर्ण हैं. यह इस विषय पर था कि प्रतिवादी (सरकार) के पक्ष में ईडब्ल्यूएस के दायरे से एससी/एसटी/ओबीसी को बाहर रखे जाने के कारण क्या 103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करने वाला कहा जा सकता है.