नई दिल्ली : राज्य और केंद्र सरकारों ने प्रदूषण कम करने के लिये बड़े प्रयास किये हैं लेकिन एक बार फिर दिवाली के साथ ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 314 दर्ज की गई जो बेहद खराब मानी जाती है. इसमें पीएम 10 और पीएम 2.5 के कण शामिल हैं.
बताया जा रहा है कि आने वाले दिनों में दिल्ली एनसीआर के बढ़ते प्रदूषण में पराली का जलाया जाना फिर से बड़ा कारण हो सकता है. पराली की साझेदारी 35-40 % तक जा सकती है.
किसान संगठन इन दावों को पूरा नहीं मानते और इसके पलट कहते हैं कि पराली जलाने का मुद्दा हर साल केवल किसानों को बदनाम करने के लिये लाया जाता है जबकि उद्योग, पटाखे और गाड़ियों से हो रहे प्रदूषण इसके मुख्य कारण हो सकते हैं.
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव युद्धवीर सिंह ने ईटीवी भारत से बातचीत में बताया कि किसान पहले के मुकाबले अब बहुत सजग हो गए हैं. धान का पुआल पशुओं के लिये बेहतर चारा साबित हुआ है और किसान अब पराली जलाने की बजाय इसकी कटाई कर बेच भी रहे हैं. पंजाब और हरियाणा से कुछ पराली जलने की घटनाएं सामने आती हैं लेकिन यदि सरकार अखबारी प्रचार के बजाय धरातल पर काम करे तो बाकी समस्या भी ख़त्म हो सकती है.
सरकार चाहे तो किसान से खरीद कर पराली को उन गौशालाओं तक सीधे पहुंचाया जा सकता है जिन्हें सरकार द्वारा ही चलाया जाता है. उत्तर प्रदेश सरकार की गौशालाएं हैं जिसके लिये चारे पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च करती है, हरियाणा में भी गौशालाएं हैं और दिल्ली सरकार भी गौशाला को सब्सिडी या सहयोग देने का काम करती है. यदि इन्हें आपस में जोड़ दिया जाए तो किसानों को पराली का दाम मिल जायेगा और गौशालाओं को पौष्टिक चारा.
कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट के आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में 15 सितंबर से 2 नवंबर के बीच पराली जलाने के कुल 43918 मामले सामने आये थे जबकि इस साल 15 सितंबर से 2 नवम्बर के बीच कुल 21364 मामले सामने आए. बता दें कि ये समय धान की कटाई का होता है और पंजाब-हरियाणा समेत सभी राज्यों में धान की कटाई का काम इस दौरान पूरा हो जाता है. किसान इसके बाद गेहूं और आलू की बुआई के लिये खेत को तैयार करने में लग जाते हैं.
किसान नेता युद्धवीर सिंह कहते हैं कि 7 नवंबर से 20 नवंबर के बीच किसान गेहूं और अन्य फसल की बुआई का काम लगभग पूरा कर लेते हैं. ऐसे में जाहिर है कि अब तक खेत भी तैयार कर चुके होंगे और जब बुआई का समय आ गया तो पराली जलाने के कारण प्रदूषण बढ़ने का सवाल नहीं उठता. एजेंसियो को अन्य कारणों पर भी इतना ही गहन शोध और उन आंकड़ों का प्रचार करना चाहिये.
भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एजेंसी SAFAR का अनुमान है कि 6 नवंबर तक बढ़ते प्रदूषण में पराली जलने की भागीदारी 38 % तक जा सकती है. भारतीय कृषि विज्ञान संस्थान से के 15 और 16 अक्टूबर के आंकड़ों को देखें तो पराली जलाने की कुल 1948 मामले सामने आये जबकि 15 अक्टूबर से पहले पूरे एक महीने में भी संख्या इससे कम 1795 तक थी.
सबसे ज्यादा मामले पंजाब और हरियाणा से सामने आते हैं क्योंकि पारंपरिक तौर पर यहां किसानों के बीच पराली के निष्पादन का एकमात्र तरीका इसको जलाना ही रहा है. किसान पराली को चारे के रूप में उपयोग नहीं करते हैं लेकिन जैसे जैसे जागरूकता बढ़ रही है, वैसे ही पराली जलाने की घटनाओं में गिरावट भी देखी जा रही है.
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं कि पराली निष्पादन के लिये सरकार और उसकी एजेंसियों द्वारा विकसित उपाय न केवल समय लगाने वाले हैं बल्कि सभी किसानों तक पहुंच भी नहीं पाते हैं. सरकार यदि पूर्णतः पराली जलाने की घटनाओं पर रोक लगाना चाहती है तो उसे 200 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से किसानों को भुगतान करना चाहिये.
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सरकारें पराली प्रबंधन के नाम पर सैंकड़ों करोड़ खर्च कर रही हैं जिसका असर पराली जलाने की घटना में 50 प्रतिशत तक की गिरावट के रूप में देखा भी जा रहा है लेकिन शत प्रतिशत नियंत्रण के लिये किसानों के खेत से सीधे उठाव या उन्हें सीधे भुगतान की व्यवस्था की मांग किसान नेता करते हैं.