गोरखपुरः बिहार प्रांत के अररिया जिले में जन्मे और कोलकाता से अपनी शुरुआती दौर की पढ़ाई-लिखाई करने के बाद, गोरखपुर पहुंचकर राजकीय पॉलीटेक्निक से मैकेनिकल में डिप्लोमा करने वाले सुब्रत राय सहारा की फर्श से अर्श पर पहुंचने की कहानी बड़ी ही रोचक है. पढ़ने में मेधावी होने के बावजूद उन्होंने कभी भी सरकारी नौकरी में रुचि नहीं दिखाई. वह कहते थे कि मैं नौकरी नहीं करूंगा बल्कि नौकरी देने वाला बनूंगा.
सहाराश्री के साथ पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण सिंह (सफेद कुर्ते पैजामे में). (फाइल फोटो) उनके मित्र और पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण उर्फ खोखा सिंह कहते हैं कि सहाराश्री में जीवंतता इतनी थी की कोई भी उनके साथ जुड़कर आगे बढ़ाने की सोच बढ़ जाती थी. सुब्रत राय यही चाहते भी थे. चिट फंड के साथ कई कंपनियों को खड़ा करके उन्होंने पूर्वांचल समेत देश के विभिन्न हिस्सों में लाखों लोगों को रोजगार से जोड़ा और उनके परिवारों का सहारा बने. वह देश में रेलवे के बाद रोजगार देने वाली सबसे बड़ी संस्था बने. यह पूरा देश जानता है. चिट फंड की कारोबार में भले ही वह आरोपों से घिरे रहे लेकिन वह पूरी मजबूती से देश में बने रहे और खड़े रहे.
राजबब्बर के साथ सहाराश्री. (फाइल फोटो) गोरखपुर उनकी सबसे महत्वपूर्ण कर्मस्थली है जहां से उन्होंने चिट फंड के कारोबार को शुरू किया था. वह भी एक कुर्सी और मेज के साथ. उनका ठिकाना युनाइटेड टॉकीज के बगल का वह स्थान आज भी है जहां पर उन्होंने एक छोटी सी दुकान से इसकी शुरूआत की थी. आज भी इस स्थान पर सहारा का परिसर है जिसमें कारोबार आज भी होता है.
सहाराश्री कर्मचारियों के साथ. (फाइल फोटो) खोखा सिंह कहते हैं कि सहारा श्री को सिर्फ एक बिजनेसमैन और रोजगार देने वाले व्यक्ति के रूप में ही नहीं देखना चाहिए. उनके कार्य क्षेत्र का दायरा बहुत विस्तृत था. वर्ष 1998 में पूर्वांचल में आई भीषण बाढ़ में उन्होंने हेलीकॉप्टर से खाद्य और रसद सामग्रियां लोगों तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई थी. सहारा की सोशल वेलफेयर यूनिट आज भी लोगों की मदद करती है. यही नहीं खेल की दुनिया में चाहे क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल कुछ भी ही सभी की उन्होंने ब्रांडिंग कराई. गोरखपुर में राप्ती नदी के तट पर पहला आधुनिक शवदाह गृह सहारा के सौजन्य से बना. लखनऊ के भैसा कुंड में भी यह देखने को मिलता है.
उन्होंने बताया कि शुरुआती दिनों में एक कुर्सी और टेबल पर जब उनकी चौकड़ी युवाओं को रोजगार और बचत से जोड़ने की बैठी थी, तो उसका हिस्सा मुझे भी बनने का अवसर मिला था. एक बड़े भाई के रूप में एक सहयोगी के रूप में उन्होंने मेरा साथ सदैव दिया. आज वह दुनिया छोड़कर चले गए तो उनकी यादें इतनी है जिसको बयां नहीं किया जा सकता. मुझे विधायक बनाने से लेकर अपनी गाड़ी में दूल्हा बनाकर ले जाने की भूमिका भी सहारा श्री ने अहम भूमिका अदा की थी. आज लाखों परिवारों का मसीहा दुनिया छोड़कर चला गया तो देश को भी रोजगार और अन्य क्षेत्रों में एक बड़ी पहचान देने वाली हस्ती का जाना एक बड़ी क्षति है. अनुग्रह नारायण सिंह ने कहा कि सहाराश्री की प्रेरणा से ही उन्होंने "एफिडेविट वीकली" नामक अखबार की शुरुआत की थी जो आज भी संचालित होता है.
'मुझे नौकरी करनी नहीं है, देनी है'
सहाराश्री के साथ पढ़े राजेंद्र दुबे कहते हैं कि 1967 में राजकीय पालीटेक्निक में मैकेनिकल ट्रेड से पढ़ाई की थी. एक मेधावी छात्र होने के बावजूद कभी भी किसी सरकारी नौकरी के लिये आवेदन नहीं किया. वह पढ़ाई के दौरान ही कहां करते थे कि मुझे इम्प्लाई नही इम्पलॉयर बनना है. मुझे नौकरी देनी है, करनी नही है. यह उनका आदर्श वाक्य था. पढ़ाई के दौरान वह जावा मोटरसाइकिल का शौक रखते थे. वह एक बेहतरीन क्रिकेटर भी थे. समाचार जगत में भी उन्होंने अखबार और टीवी चैनल लांच कर एक नई क्रांति लाई थी.
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