नई दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को व्यवस्था दी कि राजधानी के पुलिस आयुक्त के रूप में भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के गुजरात काडर के अधिकारी राकेश अस्थाना की नियुक्ति में कोई अनियमितता, अवैधता या गड़बड़ी नहीं है. इसके साथ ही अदालत ने अस्थाना की नियुक्ति को चुनौती देने वाली जनहित याचिका खारिज कर दी.
मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति ज्योति सिंह की पीठ ने कहा कि 1984-बैच के आईपीएस अधिकारी अस्थाना की नियुक्ति के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया ‘एक दशक से अधिक समय’ से अपनायी जाती रही है. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय राजधानी की अनोखी जरुरतों के मद्देनजर ऐसे मामलों में अधिकारियों को कुछ ढील तो दी ही जानी चाहिए.
उच्च न्यायालय ने 77 पन्नों के अपने फैसले में कहा, ‘‘प्रतिवादी संख्या-दो (अस्थाना) की नियुक्ति से पहले 2006 से दिल्ली में आठ पूर्व पुलिस आयुक्तों की नियुक्ति केंद्र सरकार ने उसी प्रक्रिया का पालन करते हुए की, जिसके तहत प्रतिवादी संख्या-दो की नियुक्ति की गयी। उक्त नियुक्तियों पर कभी भी कोई आपत्ति नहीं की गई है … न तो यूपीएससी द्वारा, न किसी अन्य पार्टी द्वारा.’’
अस्थाना सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक के तौर पर सेवाएं दे रहे थे, लेकिन 31 जुलाई को सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले ही 27 जुलाई को उन्हें दिल्ली का पुलिस आयुक्त नियुक्त कर दिया गया था. उनका राष्ट्रीय राजधानी के पुलिस प्रमुख के तौर पर कार्यकाल एक साल का होगा.
याचिकाकर्ता एवं वकील सद्रे आलम ने अस्थाना को अंतर-काडर प्रतिनियुक्ति और एक साल का सेवा विस्तार देते हुए दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्त करने संबंधी गृह मंत्रालय का 27 जुलाई का आदेश रद्द करने का अनुरोध किया था.
दिल्ली में चुनौतीपूर्ण कानून और व्यवस्था की स्थिति है, जिसके अंतरराष्ट्रीय परिणाम हैं, और इस प्रकार केंद्र के विवेक के अनुसार इस पद के लिए एक ‘अनुभवी अधिकारी’ के चयन की आवश्यकता थी.
अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि प्रकाश सिंह मामले में उच्चतम न्यायालय का वह फैसला, जिसमें कुछ पुलिस अधिकारियों के लिए न्यूनतम कार्यकाल और चयन से पहले यूपीएससी पैनल के गठन की अनिवार्यता थी, दिल्ली के पुलिस आयुक्त की नियुक्ति पर लागू नहीं है, बल्कि यह राज्य में पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति पर लागू करने के लिए है.’’
खंडपीठ ने कहा, “यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत की राजधानी होने के नाते दिल्ली की एक अनूठी, विशेष और विशिष्ट आवश्यकता है. इसने कई अप्रिय घटनाओं और अत्यंत चुनौतीपूर्ण कानून और व्यवस्था की स्थितियों/दंगों/अपराधों को देखा है, जिनका एक अंतरराष्ट्रीय प्रभाव है, जिसके लिए केंद्र सरकार ने अन्य तथ्यों के अलावा अपने विवेकानुसार एक अनुभवी अधिकारी की नियुक्ति पर जोर दिया, जिसके पास बड़े पैरा-मिलिट्री का नेतृत्व करने का व्यापक अनुभव हो.’’
न्यायालय ने कहा, ‘‘जैसा कि प्रतिवादी संख्या-एक (केंद्र) द्वारा जवाबी हलफनामे में कहा गया था, उपरोक्त कारकों की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए आदेश पारित किया गया था.’’
इसने कहा, ‘‘यह अदालत प्रतिवादी संख्या-एक की इस दलील को उचित मानती है कि दिल्ली, भारत की राजधानी होने के नाते, इसकी अपनी विशेषताएं, विशिष्ट कारक, जटिलताएं और संवेदनशीलताएं हैं, जो किसी भी अन्य आयुक्तालय में बहुत कम हैं. राष्ट्रीय राजधानी में किसी भी अप्रिय घटना या कानून-व्यवस्था की स्थिति के न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर दूरगामी परिणाम, प्रभाव, नतीजे और निहितार्थ होंगे. इस प्रकार, यह आवश्यक है कि राजधानी की जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए दिल्ली पुलिस आयुक्त की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को कुछ छूट दी जानी चाहिए.’’
न्यायालय ने यह भी माना कि केंद्र के पास अंतर-काडर प्रतिनियुक्ति देने और सेवा नियमों में ढील देने के लिए कानून के तहत शक्ति मौजूद है, जिसके तहत वह सेवानिवृत्ति की तारीख से परे सेवा विस्तार की अनुमति देता है.
उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया, ‘‘ लगभग एक दशक से अधिक समय से चली आ रही प्रक्रिया का पालन करते हुए प्रतिवादी संख्या-दो की नियुक्ति के लिए प्रतिवादी संख्या- एक की कार्रवाई में हमें कोई अनियमितता, अवैधता या गड़बड़ी नहीं मिली है.’’
न्यायालय ने आगे जोड़ा, ‘‘यदि 2006 से केंद्र सरकार द्वारा एक प्रक्रिया का पालन किया गया है ... जो बिना किसी अदालत या कानूनी फोरम के समक्ष किसी भी आपत्ति/चुनौती के बिना समय की कसौटी पर खरी उतरी है, तो वह समान दर्जा हासिल करती है. हम तदनुसार प्रतिवादी संख्या 1 को दिल्ली के पुलिस आयुक्त की नियुक्ति के लिए अपनाई गई पुरानी प्रथा और प्रक्रिया से अलग होने का निर्देश देने का कोई कारण नहीं देखते हैं ... हमारे विचार में, प्रतिवादी संख्या-एक द्वारा प्रतिवादी संख्या-दो की नियुक्ति के लिए दिए गए औचित्य और कारण विश्वास करने योग्य हैं तथा इसकी न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता नहीं है.’’
याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि अस्थाना की नियुक्ति प्रकाश सिंह मामले में शीर्ष अदालत के निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है. केंद्र ने कहा था कि अस्थाना की नियुक्ति और कार्यकाल का विस्तार जनहित में किया गया था और एजीएमयूटी आईपीसी काडर में इस पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं थे. केंद्र ने दलील दी थी कि जनहित याचिका एवं अस्थाना की नियुक्ति को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती देने वाले एनजीओ सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) की हस्तक्षेप याचिका अनुकरणीय लागतों के साथ खारिज करने योग्य है.
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अस्थाना ने न्यायालय को बताया था कि उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर लगातार अभियान चल रहा था और उनकी नियुक्ति को कानूनी चुनौती दी गई थी.