हैदराबाद: उठो, जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि तुम अपना लक्ष्य हासिल ना कर लो. जीवन का ये मंत्र दुनिया को स्वामी विवेकानंद ने दिया था. उनकी पहचान सिर्फ एक आध्यात्म गुरु की नहीं थी, उनका जीवन खुद में भारत की पहचान और संस्कृति को समेटे हुए है. कई विषयों में पारंगत स्वामी विवेकानंद को आज इसलिये याद कर रहे हैं क्योंकि आज उनकी पुण्यतिथि है. उनका जीवन हर किसी के लिए सीख है खासकर युवाओं के लिए. यही वजह है कि 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है.
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ. उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था. वो बचपन से ही एक मेधावी छात्र रहे. उन्हें जीवन और जीवन से जुड़े रहस्यों को जानने की रुचि थी. साल 1871 में महज 8 साल की उम्र में उन्होंने ईश्वर चंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट से शिक्षा ग्रहण की. उन्होंने अपनी कॉलेज की शिक्षा प्रेजिडेंसी कॉलेज से पूरी की और कॉलेज पूरा करते-करते ही वो बहुत से विषयों के एक्सपर्ट हो गए थे. पढाई के अलावा खेलों में भी उनकी रुचि थी.
स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस
रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे. साल1881 में दक्षिणेश्वर मंदिर में दोनों की पहली बार मुलाकात हुई थी. रामकृष्ण परमहंस एक संत और आध्यात्मिक व्यक्ति थे. नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस ने बहुत प्रभावित किया और नरेन्द्र वहां रोज जाने लगे. हालांकि शुरू में नरेंद्र ने उनके सिद्धांतों और तर्कों को स्वीकार नहीं किया, वास्तव में रामकृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाने की सलाह देते थे. वो माँ काली के भक्त थे, लेकिन समय के साथ नरेंद्र का आध्यात्म झुकाव उनकी तरफ होने लगा और अंतत: उन्होंने रामकृष्ण के भक्ति के तरीके को स्वीकार कर लिया और ब्रह्म समाज छोड़ दिया.
ज्ञान की भूख ने नरेंद्र को बनाया विवेकानंद
1884 में उनके पिता का निधन हो गया और परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ने के कारण परिवार की जिम्मेदारी नरेंद्र के कंधों पर आ गई. वो कई बार भूखे रहते थे लेकिन धर्म और भक्ति की तरफ उनका झुकाव कम नहीं हुआ. जब उनका पूरा ध्यान रोजगार या परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने में होना चाहिए था तब वो रोज मंदिर जाते और रामकृष्ण परमहंस के पास समय बिताते.
एक बार रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें कहा कि अगर काली माता उन्हें दर्शन देगी तो तब वो क्या मांगेंगे. उसके बाद वो जब भी मंदिर जाते तो मां से कहते 'माँ मुझे ज्ञान दो, भक्ति दो, वैराग्य दो' इस तरह आखिरी प्रयास तक वो मां काली से अपने लिए वैभव और अपने परिवार के लिए ऐशो आराम की जिन्दगी नहीं मांग सके. इस तरह रामकृष्ण से मिलने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं को आध्यात्म जीवन में समर्पित कर दिया. वो अपना ज्यादातर समय ध्यान और जप में व्यतीत करने लगे. नरेंद्र नाथ दत्त 25 साल की उम्र में घर छोड़कर संन्यासी बन गए. संन्यास लेने के बाद उनका नाम विवेकानंद पड़ा.
शिकागो का वो ऐतिहासिक भाषण
25 साल की उम्र में नरेंद्र दत्त गेरुएं वस्त्र पहनने लगे थे. जिसके बाद उन्होंने पैदल ही भारतवर्ष की यात्रा की. सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद हो रही थी. स्वामी विवेकानंद उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे. उस वक्त भारत अंग्रेजों का गुलाम था और यूरोप, अमेरिका के अग्रिम पंक्ति वाले देश भारत के लोगों को हीन भावना से देखते थे. वहां मौजूद कई लोग नहीं चाहते थे कि स्वामी विवेकानंद इस सर्वधर्म परिषद में भाषण दें लेकिन उन्हें जब बोलने का मौका मिला तो पूरी दुनिया उनके आगे नतमस्तक हो गई.
11 सितंबर 1893 का वो दिन हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया. 'मेरे अमेरिकन भाइयों और बहनों' जैसे ही इस लाइन के साथ उन्होंने अपने भाषण की शुरूआत की पूरा ऑडिटोरियम तालियों के शोर से गूंज उठा. लोग जैसे उनके भाषण से सम्मोहित हो उठे थे. स्वामी विवेकानंद ने कहा कि मेरा हृदय प्रसन्नता से भर उठा हैं, मैं आप सभी का दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता की तरफ से आभार प्रकट करता हूं. उनके भाषण में सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव था. इस सम्मेलन को कवर करने वाली मीडिया ने उन्हें एक सबसे अच्छा वक्ता माना जिसने श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया था.
शिकागो में धर्म संसद में दिए उनके भाषण के बाद दुनिया उनको जानने लगी. बड़े-बड़े अमेरिकी विद्वान भी उनके मुरीद हो गए. इसके बाद विवेकानंद ने अगले 2 वर्षों तक वहां पर वेदान्त पर भाषण देने का काम किया. अमेरिका में उनके भक्तों का एक समुदाय बन गया था. वो जहां भी जाते उनका जोरदार स्वागत होता था. 1894 में उन्होंने न्यूयॉर्क में वेदान्त सोसायटी की नींव रखी. इसके बाद 1895 में उन्होंने इंग्लैंड का भ्रमण किया.
स्वामी विवेकानंद का जीवन सीख है
1886 में उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस समाधिलीन हो गए और उन्होंने स्वामी विवेकानंद को अपना उत्तराधिकारी चुना. स्वामी विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की.