लखनऊ : उत्तर प्रदेश में होने वाला 2022 का चुनाव हर दिन रोचक होता जा रहा है. सपा व भाजपा में नेताओं का आना-जाना सबाब पर है. ऐसे में सूबे में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती की पार्टी बसपा इस चुनावी शोरगुल से दूर कोसों दूर हैं. बहनजी की शांति उनके कोर वोटर्स में खलबली मचा रही है. अब यह सवाल भी उठने लगा है कि अगर बसपा चुनाव में लड़ी ही नहीं हो, तो उन्हें कौन सा नया रास्ता चुनना होगा.
पिछले तीन दशक से यूपी के दलित वोटर्स बसपा पर अपना विश्वास दिखाते आ रहे हैं. मायावती भी भले ही चुनावों में कभी मुस्लिम तो कभी ब्राह्मणों को लुभाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग का कार्ड खेलती रही हों, लेकिन उनका बेस वोट बैंक टस-से-मस नही हुआ. हालांकि इस बार मायावती द्वारा चुनाव में खासा दिलचस्पी न दिखाने से उनका वोट बैंक छिटक भी सकता है. आप इसे ऐसे भी देख सकते हैं, बीजेपी की मोदी-योगी सरकार पिछले पांच सालों से अपनी विभिन्न योजनाओं के सहारे दलित वोट बैंक को खुश करने में जुटी थीं. यही नहीं, दलितों के घर भोजन कर बीजेपी दलित वोट बैंक को साधने का बार-बार प्रयास कर रही है.
पहले चरण के चुनाव में एक महीने से कम का वक़्त है और मायावती की सुस्त चाल से दलित मतदाता की उदासीनता को लेकर तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. राज्य में दलितों की आबादी करीब 21 फीसदी है. इसमें सबसे ज्यादा हिस्सा जाटव (55 फीसदी) का है. दलितों में पासी, धोबी, कोयरी की हिस्सेदारी 12 फीसदी है. वाल्मीकि, धानुक, खटीक, बहेलिया, बावरिया, धनगर, गोंड, नट, मुसहर और शिल्पकार जैसी जातियां न के बराबर ही हैं. इसमें जाटव ने हमेशा बसपा पर भरोसा जताया है. कहा जाता था कि बसपा का मतलब ही जाटव है. वहीं, पासी, धोबी, खटिक और बाल्मीकि का झुकाव बीजेपी की तरफ रहा है. कनौजिया, कोल और धानुक अलग-अलग दलों के साथ जाते रहे हैं.
राजनीतिक विश्लेषक अंशुमान शुक्ला का कहना है कि 1995 में मायावती जब पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं, उसके बाद ही दलित मुखर हुए और उनमें सियासी जागरूकता भी बढ़ी. मायावती की सियासी एंट्री से पहले दलित कांग्रेस का बेस वोट बैंक माना जाता था. मायावती की राजनीतिक पृष्ठभूमि दलितों की 55 प्रतिशत आबादी जाटव के इर्द-गिर्द घूमती रही है. इस वोटबैंक को सुरक्षित रखने के सभी प्रयास करने के बावजूद 2012 विधान सभा चुनाव से 2019 के लोक सभा चुनाव तक मायावती के हाथ से ये वोट बैंक सरक रहा है. इस वोट बैंक ने 2014, 2017 और 2019 लोक सभा, विधान सभा चुनाव में बीजेपी पर भरोसा जताया है.
यूपी भाजपा एससी/एसटी मोर्चा के अध्यक्ष राम चंद्र कनौजिया कहते हैं कि पार्टी के नारे 'सबका साथ, सबका विकास' के पीछे छिपे हुए संदेश को समझने की जरूरत है. हम ऊंची जाति और दलितों के बीच की खाई को भरना चाहते हैं, जो सदियों से चली आ रही है. उन्होंने कहा कि महामारी के दौरान राशन और जन औषधि योजना जैसे कदमों ने सामाजिक-आर्थिक रूप से उत्पीड़ित वर्ग को काफी राहत पहुंचाई. यूपी की 21 फीसदी कुल दलित आबादी में 55 फीसदी जाटव हैं. दलितों की कुल आबादी में 3.3 फीसदी पासी, कोरी व बाल्मीकि 3.15 फीसदी, 1.5 धानुक, 1.3 बाल्मीकि, 1.2 खटीक और 4.5 अन्य हैं. ऐसे में भाजपा और सपा इन्हें अपने पाले में लाने में लगी हुईं हैं.
चूंकि 2017 के विधान सभा चुनाव और 2019 के लोक सभा चुनाव में गैर जाटव वोट बैंक भाजपा के पाले में एकमुश्त गिरा था, इसको देखते हुए पार्टी ने 2019 के चुनाव के बाद से सभी जिलों में विशेष सभाएं की. यहीं नहीं, दलितों के घर जाकर खाना खाना हो या फिर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ उन तक पहुंचना बीजेपी ने कोई कसर नही छोड़ी. इस बार के विधान सभा चुनाव के मद्देनजर भी बीजेपी ने पहले और दूसरे चरण के प्रत्याशियों की लिस्ट में दलित वर्ग का खासा ध्यान दिया है. पार्टी की 107 उम्मीदवारों की जो पहली लिस्ट आई है उसमें 19 दलितों को टिकट दिया है, जिसमें से 13 जाटव हैं. यह वही दलित उप-जाति है जो मायावती का बेस वोटर है.