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चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर उठते सवाल

चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं. पं. बंगाल में आचार संहिता के उल्लंघन को लेकर जिस तरह के आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं, वह प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं. जाहिर है, ऐसे में उन मांगों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति लेकर बात की गई है. इससे जुड़ी याचिका सुप्रीम कोर्ट में भी लंबित है.

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Published : Apr 14, 2021, 10:40 PM IST

हैदराबाद : भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की उन बातों पर आज कोई ध्यान देने वाला नहीं है, जब उन्होंने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा था कि चुनाव में गलत तरीके से हासिल की गई जीत विजय नहीं होती है. राजनीतिक दलों द्वारा निर्धारित नियमों के उल्लंघन करने की वजह से लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरी चोट पहुंच रही है. पांच राज्यों के चुनाव के दौरान इसे देखा जा सकता है. प.बंगाल में अभी पांचवें, छठे, सातवें और आठवें चरण का चुनाव होना बाकी है. तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल और असम में विधानसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं.

प.बंगाल को लेकर चुनाव आयोग ने बड़े विश्वास के साथ कहा था कि उसने 6400 पोलिंग केंद्रों की पहचान कर ली है, जहां पर गड़बड़ी की सबसे अधिक आशंका है. लिहाजा, यहां पर केंद्रीय बलों की मजबूती से तैनाती की जाएगी. लेकिन चुनाव आचार संहिता के कार्यान्वयन को लेकर आयोग की साख दांव पर लग गई. भाजपा को 2016 में तीन सीटें मिलीं थीं. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 18 सीटें जीत लीं. इसके बाद पार्टी यहां पर पूरा जोर लगा रही है. पार्टी हर हाल में टीएमसी को सत्ता से बाहर करना चाहती है. इस राजनीतिक आपाधापी में आचार संहिता सबसे अधिक प्रभावित हुआ. ममता बनर्जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया. भाजपा द्वारा रचित 'पद्मव्यूह' के सामने वह अडिग हैं.

ममता आरोप लगा रहीं हैं कि आयोग उनके प्रति कठोर है, लेकिन भाजपा नेताओं के प्रति सॉफ्ट है. यही वजह है कि ममता ने तंज लहजे में आयोग के एमसीसी को 'मोदी कोड ऑफ कंडक्ट' कहकर संबोधित किया. इस मामले को लेकर आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होना प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एमएस गिल ने अपने कार्यकाल के दौरान कहा था कि सभी मान्यता प्राप्त दलों को अपने लिए संवैधानिक नैतिकता का दायरा स्वंय ही खींचना चाहिए और उन्हें उसका कड़ाई से पालन करना चाहिए.

करीब 70 साल पहले संविधान के जनक डॉ भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए अलग से व्यवस्था अपनाई जानी चाहिए, ताकि विवाद की कोई गुंजाइश न हो. आज तक उनकी सलाह पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. नवीन चावला वाले मामले में सबने देखा कि चुनाव आयोग किस हद तक पक्षपात कर सकता है. उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने अंदर की जानकारी बाहरी लोगों को दी है. चुनाव आयुक्त लवासा के मामले में भी क्या हुआ, सबको पता है. लवासा ने पीएम मोदी और अमित शाह को क्लीन चिट देने के मामले में अपनी अलग राय दी थी. उन पर आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप लगे थे.

इन संवैधानिक पदों की शोभा तभी बढ़ती है, जब इस पद पर बैठा हुआ व्यक्ति निष्ठा के साथ काम करे और किसी भी परिस्थिति में अपने दायित्वों से मुंह नहीं मोड़े. मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए पीएम, मुख्य न्यायाधीश और प्रतिपक्ष के नेता से बनी एक कमेटी का सुझाव प्रस्तावित है. वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भी यह सुझाव दिया था. लेकिन भाजपा खुद अब पूरी तरह से बदल चुकी है. सुप्रीम कोर्ट में इस सुझाव से जुड़ी याचिका लंबित है.

लोकतंत्र की नींव लोगों के भरोसे पर टिकी होती है. उसे यकीन होना चाहिए कि असली जनादेश को दर्शाने वाली व्यवस्था मजबूती से खड़ी है. लोगों का विश्वास न टूटे, इसके लिए जरूरी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सर्वसम्मति से एक विशेष कमेटी के जरिए हो और आयोग को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया चाहिए.

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