हैदराबाद :इलाहाबाद हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार (Government) को गाय को भारत का राष्ट्रीय पशु (National Animal) घोषित करने के लिए संसद में बिल पेश करने का सुझाव दिया है. कोर्ट ने कहा कि गायों की सुरक्षा को हिंदुओं के मौलिक अधिकार में शामिल किया जाना चाहिए. हाईकोर्ट ने कहा कि गाय की रक्षा और उसे बढ़ावा देना किसी मजहब से नहीं जुड़ा है. गाय तो भारत की संस्कृति है और संस्कृति की रक्षा करना देश में रह रहे हर नागरिक का फर्ज है चाहे उनका मजहब कुछ भी हो. इससे पहले 2017 में राजस्थान हाई कोर्ट ने भी गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सलाह दी थी. राजस्थान हाईकोर्ट के न्यायाधीश महेश चंद्र शर्मा ने गोकशी के एक मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी.
संसद या विधानसभा में कभी नहीं आया प्रस्ताव :गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग साधु-संत समाज लगातार करता रहा है. राजनीतिक हलकों में गोवध रोकने की मांग तो आजादी से पहले से की जा रही है मगर इसे राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग कम ही हुई है. संसद में गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को लेकर कई बार प्रस्ताव आए. देश की संसद या राज्यों की विधानसभा में अभी तक किसी जनप्रतिनिधि ने इसे राष्ट्रीय पशु बनाने को लेकर प्रस्ताव नहीं दिया. 2015 में हरियाणा के मंत्री अनिल विज ने एक ऑनलाइन सर्वे किया था, जिसमें 88 फीसदी लोगों ने इसका समर्थन किया था.
गांधी भी करते रहे गौसेवा की वकालत :विषय राजनीतिक हो या न्यायिक, गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग का मकसद गोहत्या को रोकना ही रहा है. गोरक्षा के लिए आजादी के काफी साल पहले भी कई संगठनों ने आवाज बुलंद की थी. 1880 के दशक में स्वामी दयानन्द सरस्वती के नेतृत्व में आर्य समाज ने गोरक्षा आंदोलन शुरू किया, इसका असर आजादी के बाद तक देखा गया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी गाय को लेकर सहिष्णु रहे. इन नेताओं को जब भी मौका मिला, गोरक्षा की वकालत की. 1924 में महात्मा गांधी ने 'गो सेवा संघ' का उद्घाटन किया और कहा कि गाय की रक्षा स्वराज से भी जरूरी है. 1942 में एक भाषण के दौरान तो उन्होंने कहा था कि अगर गाय मरती है तो हम भी मर जाएंगे.
आजादी के बाद शुरू हुई गाय पर सियासत:गाय पर असल राजनीति आजादी के बाद शुरू हुई. विभाजन के बाद भारत में हिंदू मानकों और मान्यताओं के प्रति भावना प्रबल हुई. बिनोवा भावे ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने भी गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग रखी. 1955 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मलचन्द्र चटर्जी (सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने भी इस संबंध में एक प्राइवेट बिल पेश किया. हालांकि जन भावनाओं को देखते हुए गोवध निवारण अधिनियम पारित किया गया, जो 6 जनवरी 1956 को लागू हुआ. इसका उद्देश्य गोवंश की रक्षा और गोकशी की घटनाओं को पूरी तरह से रोकना है. अभी तक अधिनियम में गोकशी की घटनाओं के लिए सात वर्ष की अधिकतम सजा का प्रावधान है.
गाय के लिए आंदोलन, गृहमंत्री को देना पड़ा था इस्तीफा :इसके बावजूद वक्त के साथ हिंदी पट्टी में गोरक्षा आंदोलन किसी न किसी रूप में चलता रहा. 1966 में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और स्वामी करपात्री ने बड़े आंदोलन का आह्वान किया. 7 नवंबर 1966 को स्वामी ब्रह्मानंद के साथ करीब 1 लाख लोग संसद के पास में जमा हो गए और गुलजारी लाल नंदा का घेराव किया. इस भीड़ में नागा साधुओं का समूह था. उनकी सिर्फ एक ही मांग थी कि पूरे देश में गोहत्या पर रोक लगाई जाए. आंदोलनकारी के उग्र होने पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया और गोली चलाई. दिल्ली में कर्फ्यू लगाना पड़ा. जनसंघ और हिंदू महासभा ने इसकी निंदा की. इस घटना के बाद तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
इस घटना के बाद कांग्रेस की देश भर में किरकिरी हुई. 5 जनवरी 1967 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पशुपालन विशेषज्ञों और कुछ मंत्रियों की एक हाई-लेवल कमेटी बनाई. इस कमेटी ने गोवंश वध पर प्रतिबंध की संभावनाओं की तलाश की. 1973 में कमेटी ने सुझाव दिया कि पूरे देश में गौहत्या पर रोक लगाने की आवश्यकता नहीं है.
जब इंदिरा गांधी ने गाय को चुनाव चिह्न बनाया :इधर, एक राजनीतिक घटनाक्रम में इंदिरा गांधी की कांग्रेस के सिंडिकेट से अनबन हो गई. उस समय कांग्रेस में सिंडिकेट में शामिल नेता सरकारी फैसलों में हस्तक्षेप करते थे. गुटबाजी चरम पर पहुंचने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष एस निंजालिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाल दिया. जब 429 सांसदों में से 310 सांसद इंदिरा गांधी के साथ खड़े हुए तो उन्होंने नई कांग्रेस (आर) बना ली और अपना चुनाव चिन्ह ही 'बछड़े को दूध पिलाती गाय' रख लिया. इससे पहले कांग्रेस का चुनाव चिन्ह 'दो बैल' थे. माना यह जाता है कि इंदिरा गांधी ने गाय को लेकर चले आंदोलन से उपजे गुस्से को खत्म करने के लिए इस चुनाव चिह्न को चुना.