नई दिल्ली:टेरर फंडिंग मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे यासीन मलिक को मौत की सजा देने की मांग वाली एनआईए की याचिका पर सोमवार को सुनवाई हुई. दिल्ली हाईकोर्ट ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख और कश्मीरी अलगाववादी नेता मलिक को नोटिस जारी किया है. मामले की अगली सुनवाई 9 अगस्त को होगी.
जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस तलवंत सिंह की कोर्ट में NIA की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर अक्षय मलिक और एडवोकेट खावर सलीम ने मामले की पैरवी की. तुषार मेहता ने कहा कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) ने ही जम्मू कश्मीर में अलगाववाद और आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा दिया है. इस केस में जब एक हथियारबंद आतंकी सेना के जवानों की हत्या कर रहा है, अगर यह रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस नहीं हो सकता है, तो कोई भी केस रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस नहीं हो सकता.
उन्होंने कहा कि श्रीनगर में वायुसेना के चार अधिकारियों की हत्या और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण में भी यासीन मलिक शामिल था. अगर अपना जुर्म कुबूल कर लेने से लोग फांसी की सजा से बचने लगे तो हर कोई अपराध करने के बाद इसका फायदा उठाने लगेगा.
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2022 में हुई है आजीवन कारावास की सजाः मलिक को पटियाला हाउस कोर्ट स्थित एनआईए कोर्ट ने टेरर फंडिंग के मामले में 2022 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने इसके खिलाफ मौत की सजा की मांग करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की थी. एनआईए ने ट्रायल कोर्ट में भी मलिक के लिए मृत्युदंड की मांग की थी. हालांकि, विशेष अदालत ने यह कहते हुए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया कि मृत्युदंड केवल असाधारण मामलों में दिया जाना चाहिए जहां अपराध अपनी प्रकृति से समाज की सामूहिक चेतना को झकझोरता है.
मलिक को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 120बी, 121, 121ए और यूएपीए की धारा 13 और 15 को आईपीसी की धारा 120बी के अलावा यूएपीए की धारा 17, 18, 20, 38 और 39 के तहत दोषी ठहराया गया था. एक विस्तृत फैसले में एनआईए कोर्ट ने कहा था कि मलिक ने हिंसक रास्ता चुनकर सरकार के अच्छे इरादों को धोखा दिया. सरकार के अच्छे इरादों के साथ विश्वासघात करते हुए उन्होंने राजनीतिक संघर्ष की आड़ में हिंसा को अंजाम देने के लिए एक अलग रास्ता अख्तियार किया.
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जज ने मलिक की इस दलील को भी खारिज कर दिया था कि वह 1994 के बाद गांधीवादी बन गया था. चौरी-चौरा में हिंसा की केवल एक छोटी सी घटना के बाद महात्मा गांधी ने पूरे असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, लेकिन दोषी ने घाटी में बड़े पैमाने पर हिंसा के बावजूद न तो हिंसा की निंदा की और न ही अपने विरोध प्रदर्शन के कैलेंडर को वापस लिया, जिसके कारण हिंसा जारी रही.