मुंबई :कब्रिस्तान या श्मशान घाट का नाम सुनते ही या उसके आसपास से गुजरने पर मन सिहर सा जाता है, कभी इन जगहों पर जाना पड़े तो मन शोक और वितृष्णा से भर जाता है, ऐसे में मुंबई पुलिस के हेड कॉन्स्टेबल ज्ञानदेव प्रभाकर वारे के बारे में आप क्या कहेंगे जो हर दिन ऐसे लोगों को उनके आखिरी सफर पर पूरे सम्मान के साथ रवाना करने का बीड़ा उठाए हैं, जो पुलिस और अस्पताल के रिकार्ड में 'लावारिस' के तौर पर दर्ज हैं. पिछले दो दशक में वह 50 हजार से ज्यादा लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करवा चुके हैं, जिनमें 50 कोरोना संक्रमित शामिल हैं.
कफन-दफन का बंदोबस्त
बुजुर्गों से सुनते हैं कि किन्हीं अच्छे लोगों की नेकियों के कारण यह दुनिया आज तक टिकी है. ज्ञानदेव वारे को भी ऐसे ही लोगों में शुमार किया जाना चाहिए, जो पिछले 20 साल से भी अधिक समय से लावारिस शवों को श्मशान घाट या कब्रिस्तान तो पहुंचाते ही हैं, पूरे विधि विधान से उनके दाह संस्कार अथवा कफन दफन का बंदोबस्त भी करते हैं.
दो दशकों से कर रहे 'सारथी' का काम
वर्ष 1995 में मुंबई पुलिस बल में शामिल हुए ज्ञानदेव ने पांच बरस तक पुलिस की नियमित ड्यूटी की. वर्ष 2000 में उन्हें विभाग का शव वाहन चलाने का काम सौंपा गया. उसके बाद से वह हर दिन मुंबई पुलिस का यह लाल और नारंगी धारी वाला काले रंग का वाहन लेकर सायन, जेजे, नायर, जीटी, सेंट जार्ज या सेवरी के टीबी अस्पताल जाते हैं और वहां से लावारिस शवों को लेकर उन्हें पूरे सम्मान के साथ उनके अंतिम सफर पर भेजने का इंतजाम करते हैं.
ईश्वर ने उन्हें पुण्य के इस कार्य के लिए चुना
अपने इस उल्लेखनीय योगदान के लिए पिछले दिनों पुलिस विभाग द्वारा सम्मानित किए गए ज्ञानदेव बताते हैं कि शुरू में यह उनके लिए आसान नहीं था. उन्हें कभी क्षत विक्षत शवों को तो कभी खून से लथपथ या अंगभंग वाले शवों को अस्पताल पहुंचाना पड़ता था. शवों को उनके गंतव्य तक पहुंचाकर जब वह घर पहुंचते तो हलक से निवाला नहीं निगला जाता था, रात रात भर सो नहीं पाते थे. फिर धीरे-धीरे उन्हें लगा कि ईश्वर ने उन्हें पुण्य के इस कार्य के लिए चुना है और अपने लोगों के बगैर अपने अंतिम सफर पर निकले लोगों का अपना बनकर उन्हें विधि विधान से रवाना करके वह अपना मानव धर्म निभा सकते हैं. तब से वह इसे नौकरी नहीं मानते और हर दिन कुछ अच्छा करने की तसल्ली के साथ घर जाते हैं.