हैदराबाद : तब वह मात्र सात साल के थे, जब मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी मां और बहन को अपनी आंखों के सामने जिंदा जलते हुए देखा, लेकिन वह कुछ नहीं कर सके. हैदराबाद के निजाम की निजी सेना ने उनके घर को जला दिया था. खड़गे को पैतृक गांव छोड़ना पड़ा. साथ में उनके पिता थे. वह कर्नाटक के बीदर जिले के वारावट्टी गांव के रहने वाले हैं. खड़गे का जीवन संघर्ष मात्र सात साल की अवस्था से शुरू हो चुका था. 1972 में कर्नाटक के गुरमीतकल विधानसभा चुनाव में उन्होंने पहली जीत दर्ज की थी. यह कलबुर्गी जिले की सुरक्षित सीट है.
2008 तक वह इसी सीट से लगातार चुनाव जीतते रहे. उसके बाद उन्होंने चिट्टापुर से चुनाव लड़ने का फैसला किया. 2019 में वह लोकसभा चुनाव हार गए. उन्हें भाजपा के उम्मीदवार ने चुनाव हराया. यह उनकी एकमात्र चुनावी हार रही है. वह आठ बार विधायक और दो बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं. अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने के 50 साल बाद आज वह पार्टी के शिखर तक पहुंचे हैं.
जब जब कांग्रेस पार्टी ने उन्हें कोई जिम्मेदारी दी उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार किया और निभाया. जब से उन्होंने राजनीतिक सफर की शुरुआत की है, वह गांधी परिवार के प्रति वफादार रहे हैं. लेकिन इसका रिकॉग्निशन उन्हें 2014 में मिला. एक समय में इन्हें कर्नाटक का सीएम-इन-वेटिंग कहा जाता था. और हर बार किसी न किसी वजह से इनका नाम फाइनल नहीं हो पाता था. 1980 के दशक के बाद से जब-जब कांग्रेस की सरकार बनी, अधिकांश सरकारों में मंत्री रहे.
पार्टी ने 2018 में उन्हें महाराष्ट्र की जिम्मेदारी दी गई जिसने सबको चौंका दिया था. 2004 में जब इनके सीएम बनने को लेकर चर्चा शुरू हुई, तो अचानक ही धर्म सिंह का नाम ऊपर आ गया और वह सीएम बन गए. तब कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन था. 2013 में यह तय हो चुका था कि खड़गे की कर्नाटक के सीएम बनेंगे. चुनाव के बाद पार्टी ने विधायक दल की बैठक में नेता के चयन को लेकर प्रक्रिया की शुरुआत की. लेकिन यहां भी बाजी उनके हाथ से फिसल गई. सिद्दारमैया विजेता बनकर निकले.
अहमद पटेल के गुजर जाने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे सोनिया गांधी के लिए हर पार्टी से जुड़े मामलों में हर मर्ज की दवा रहे. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार खड़गे का राजनीतिक सफर इतना सुगम नहीं रहा है. वह अनुसूचित जाति से आते हैं. राज्य में लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय अधिक मुखर है. राज्य की राजनीति में इन दोनों समुदायों की अनदेखी करना मुश्किल है. इसके बावजूद खड़गे की प्रतिबद्धता और संकल्प कभी भी कम नहीं हुआ. एक समय में वह कलबुर्गी के एमएसके मिल्स के लीगल एडवायजर हुआ करते थे. उसके बाद 1969 में वह संयुक्त मजूदर संघ के नेता बन गए. इसी साल उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ले ली. वह कलबुर्गी सिटी यूनिट के प्रेसिडेंट बन गए.
खड़गे हर मौके पर जहां सोनिय गांधी के साथ दिखे वहीं राहुल गांधी के पीछे भी उसी निष्ठा और अनुभवी कार्यकता भाव से जुटे रहे हैं. यह सही है कि उन्होंने 1972 से चुनावी राजनीति में कदम रखा, लेकिन गांधी परिवार के करीबी वह 2014 में ही बन सके. दरअसल, इसकी भी पृष्ठभूमि 2009 में ही बन चुकी थी. कांग्रेस हाईकमान के लिए सुरक्षित सीटों की तलाश की जा रही थी. भाजपा कर्नाटक में अपनी स्थिति लगातार मजबूत कर रही थी. बावजूद खड़गे कलबुर्गी से लगातार दो बार लोकसभा चुनाव जीत चुके थे. 2009 और 2014 में. पार्टी ने उनकी सीट पर भी विचार किया था. खड़गे भी इसके लिए तैयार थे. लोकसभा में फ्लोर लीडर के तौर पर खड़गे ने जिस सफलता के साथ पार्टी के लिए काम किया, उसकी वजह से वह गांधी परिवार के और करीब आ गए.
मल्लिकार्जुन खड़गे तत्कालीन कर्नाटक के सीएम देवराज उर्सू के साथ. पार्टी ने 2018 में उन्हें महाराष्ट्र की जिम्मेदारी दी. इस फैसले ने सबको चौंका दिया, क्योंकि खड़गे तो लोकसभा में पार्टी के नेता थे. साथ ही वह लोक लेखा समिति की भी अध्यक्षता कर रहे थे. ऐसा कहा जाता है कि गांधी परिवार के प्रति जिस तरीके से उन्होंने अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखी, उस पर कभी भी आंच नहीं आऩे दी, यह उसी का फल था. कुछ लोग मानते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद मिलना, उनका गांधी परिवार के प्रति अगाध श्रद्धा का ही परिणाम है, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि उन्होंने संघर्ष की शुरुआत कब की थी, जब वह मात्र सात साल के थे.
मल्लिकार्जुन खड़गे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कर्नाटक के सीएम देवराज उर्सू के साथ. अपने पिता की इस सफलता पर उनके बेटे प्रियांक ने कहा, समानता की तलाश, विचारधारा पर कोई समझौता नहीं, और हमेशा क्षमता से अधिक शक्ति का प्रयोग करना, आज उन्हें इस जगह तक ले आया है.