नई दिल्ली : संविधान निर्माताओं ने विधायिका और कार्यपालिका के संबंध में जवाबदेही को अभिन्न अंग बनाया है. हालांकि उन्होंने जानबूझकर न्यायपालिका को अलग स्तर पर रखने का फैसला किया. उन्हें उन पुरुषों और महिलाओं की क्षमता पर भरोसा था जो संविधान को कायम रखने में बेंच को सुशोभित करेंगे. ये बात भारत के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना ने उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन (एससीबीए) की ओर से आयोजित संविधान दिवस समारोह में कही.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कानून मंत्री किरेन रिजिजू, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की उपस्थिति में रमना ने अधिवक्ताओं से न्यायाधीशों की मदद करने, न्यायपालिका को 'स्वार्थी और चुनिंदा हमलों' से बचाने के साथ-साथ जरूरतमंदों की मदद करने का आह्वाहन किया ताकि जनता के मन में उनके प्रति विश्वास पैदा हो सके. प्रधान न्यायाधीश ने कहा, 'मैं आप सभी से यह कहना चाहता हूं कि आप न्यायाधीशों और संस्था (न्यायपालिका) की मदद करें. अंतत: हम सभी एक ही बड़े परिवार का हिस्सा हैं. स्वार्थी और प्रेरित लोगों के कतिपय हमलों से संस्था की रक्षा करें. सही के पक्ष में और गलत के खिलाफ खड़े होने से ना डरें.'
आज ही के दिन, 1949 में भारत की संविधान सभा ने संविधान को स्वीकार किया था, जिसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया.
न्यायमूर्ति रमना ने 'बहस और चर्चा' के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि संविधान जब स्वीकार किया गया था उस वक्त से अभी तक अदालत के बाहर और भीतर हुई चर्चाओं के कारण अब यह बेहद समृद्ध और जटिल दस्तावेज है.
उन्होंने कहा, 'निर्माताओं द्वारा रखी गई नींव पर बना आज का संविधान 1949 में स्वीकृत दस्तावेज के मुकाबले अब ज्यादा समृद्ध और जटिल है. यह अदालत के भीतर और बाहर हुई चर्चाओं का परिणाम है, जिनके कारण बहुत अच्छी और अद्भुत व्याख्याएं सामने आई हैं.'
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, 'संभवत: भारतीय संविधान की सबसे महत्वपूर्ण खूबी यह तथ्य है कि वह चर्चा की रूपरेखा मुहैया कराता है. अंतत: इन्हीं चर्चाओं और बहस के माध्यम से ही देश प्रगति करना है, आगे बढ़ता है और लोगों के कल्याण के उच्चतर स्तर को हासिल करता है. इस प्रक्रिया में सबसे प्रत्यक्ष और सामने दिखने वाले लोग इस देश के अधिवक्ता और न्यायाधीश हैं.'