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तालिबान मामले पर चीन, रूस और पाक अपना रहे एक जैसी नीति : विशेषज्ञ

तालिबान द्वारा अफगानिस्तान में बढ़ रही हिंसा के बीच शांति वार्ता हो रही है. शांति वार्ता का क्या परिणाम हो सकता है. क्षेत्रीय राजनीतिक और सामरिक नजरिए से अफगान शांति प्रक्रिया का क्या महत्व है ? तालिबान और अफगानिस्तान से जुड़ी बारीकियों को समझने के लिए ईटीवी भारत की वरिष्ठ संवाददाता चंद्रकला चौधरी ने प्रोफेसर हर्ष वी पंत के साथ बातचीत की. इनका मानना है कि चीन, रूस और अफगानिस्तान तालिबान मामले पर एक ही नीति अपनाते दिख रहे हैं. पढ़ें ये विशेष रिपोर्ट...

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Published : Aug 12, 2021, 4:30 PM IST

नई दिल्ली :अफगानिस्तान और तालिबान के बीच लड़ाई जारी है. इसी बीच तीन दिवसीय वार्ता-'विस्तारित ट्रोइका' कतर के दोहा में चल रही है, जिसे रूस द्वारा युद्धग्रस्त देश में शांति प्रक्रिया पर चर्चा करने के लिए बुलाया गया था, जिसमें तालिबान, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और अन्य देशों की की उपस्थिति रही.

एक विश्लेषक का मानना ​​​​है कि इंट्रा-अफगान शांति वार्ता का कोई फल नहीं होगा क्योंकि इस समय तालिबान को लगता है कि उनकी गति/ परिस्थिति (momentum) उनके पक्ष में है और उन्हें अपनी गति का कोई बड़ा विरोध नहीं दिखता है.

ईटीवी भारत से बात करते हुए ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में निदेशक, अध्ययन और सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के प्रमुख प्रोफेसर हर्ष वी पंत ने कहा, जब तक अमेरिका कुछ रेडलाइनों को सैन्य रूप से सुदृढ़ करना शुरू नहीं करता, तालिबान के लिए अच्छे विश्वास में बातचीत करने के लिए शायद ही कोई प्रोत्साहन है. कुल मिलाकर, इंट्रा-अफगान प्रक्रिया टूट गई है और मुझे चीन, पाकिस्तान या अमेरिका और रूस द्वारा इन्हें एक साथ वापस लाने की कोशिश करने की कोई संभावना नहीं दिख रही है.

इस समय राजनीतिक सुलह प्रक्रिया खस्ताहाल है और आने वाले वर्षों में अफगानिस्तान के लिए निश्चित रूप से चुनौती यह होगी कि तालिबान विरोधी ताकतें एक ऐसा मोर्चा कैसे पेश कर सकती हैं जो तालिबान को अपनी सैन्य चाल पर पुनर्विचार करने के लिए पर्याप्त और शक्तिशाली हो. फिलहाल तालिबान को लगता है कि वह बल के इस्तेमाल से सत्ता हासिल कर सकता है और इस सोच के साथ वे बातचीत करने में विश्वास नहीं रखते. इसलिए, तथाकथित शांति प्रक्रिया से कुछ हासिल नहीं होगा और चुनौतियां जारी रहेंगी. अफगानिस्तान में गृहयुद्ध और सैन्य संघर्ष की ओर आंदोलन जारी है. इसमें अफगान के लोग सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.

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तालिबान ने हाल के सप्ताहों में पूरे अफगानिस्तान में तेजी से लाभ कमाया है जो संकेत देता है कि विद्रोही समूह अफगानिस्तान में शांति वार्ता को प्राथमिकता नहीं दे रहा है.

बता दें कि विस्तारित ट्रोइका बैठक में शीर्ष अफगान शांति वार्ताकार अब्दुल्ला अब्दुल्ला और अफगानिस्तान सुलह के लिए अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि राजदूत ज़ाल्मय खलीलज़ाद के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र, कतर, अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, चीन और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों की भागीदारी देखी गई. भारत को फिर से बैठक से बाहर रखा गया है.

विस्तारित ट्रोइका से भारत के बहिष्कार पर टिप्पणी करते हुए प्रो. पंत ने कहा कि यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत को छोड़ दिया गया है क्योंकि पाकिस्तान और चीन वास्तव में भारत को इसका हिस्सा नहीं बनना चाहते थे. रूस भारत का एक महत्वपूर्ण भागीदार है, लेकिन उस पर चीन का प्रभाव काफी है. लेकिन अगर रूस ने कोशिश की होती, तब भी यह देखना बहुत मुश्किल होता है कि रूस भारत को यहां लाने के लिए चीन और पाकिस्तान को कैसे राजी करता.

वे अफगानिस्तान पर भारत के रुख के कारण भारत को एक बड़ी समस्या के रूप में देखते हैं. यह देखा जाना बाकी है कि क्या विस्तारित ट्रोइका बैठक अफगान सरकार या तालिबान में तालिबान विरोधी ताकतों के कारण का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी भी देश के बिना अपना परिणाम प्राप्त कर सकती है या नहीं, क्योंकि इस वक्त चीन, रूस और पाकिस्तान सभी तालिबान मामले पर एक जैसी ही नीति अपनाते या मौन साधते (toeing the Taliban line) दिख रहे हैं.

उन्होंने कहा, अगर ऐसी स्थिति है तो मुझे नहीं लगता कि गैर-तालिबान गुटों को ऐसे ट्रोइका की क्षमता पर पर्याप्त विश्वास होगा जो उनके पक्ष में परिणाम दे सके. विस्तारित ट्रोइका बैठक उस वक्त रूस द्वारा अफगानिस्तान में एक राजनीतिक समाधान खोजने के लिए अंतर-अफगान वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए बुलाई गई थी, जब तालिबान ने लगभग नौ प्रांतीय राजधानियों पर कब्जा करके बड़े पैमाने पर आक्रमण शुरू किया था.

युद्ध से तबाह देश में शांति वापसी को लेकर प्रोफेसर पंत ने कहा कि जब तक तालिबान और गैर-तालिबान राजनीतिक हितधारकों के बीच राजनीतिक सुलह नहीं होती, तब तक युद्ध से तबाह राष्ट्र में शांति की वापसी की संभावना बहुत कम है.

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उन्होंने कहा, भारत लंबे समय से कह रहा है कि भले ही तालिबान अफगान के 90% क्षेत्र पर कब्जा कर ले, लेकिन तालिबान बचे हुए 10% के विरोध का सामना करेगा, जब तक कि एक विश्वसनीय राजनीतिक संरचना नहीं बनती जो सभी की आकांक्षाओं को ध्यान में रखे. मुझे लगता है कि शांति जल्द आने की संभावना नहीं है जब तक कि चीन, अमेरिका, रूस और अन्य प्रमुख देशों सहित सभी पक्ष तालिबान पर दबाव नहीं डालते.

हालांकि भारत अफगानिस्तान की स्थिति पर चर्चा करने के लिए कतर में आयोजित प्रमुख देशों की एक बैठक में भाग लेने के लिए तैयार है. बैठक में तुर्की, इंडोनेशिया जैसे देश भी शामिल होंगे. भारत अफगान सरकार का समर्थन कर रहा है और अफगानिस्तान में अन्य पक्षों के साथ बातचीत कर रहा है. भारत ने बार-बार किसी भी शासन को जबरदस्ती लागू करने का विरोध किया है.

भारत ने यह सुनिश्चित किया है कि शांति प्रक्रिया अफगान-नेतृत्व वाली, अफगान-स्वामित्व वाली और अफगान-नियंत्रित होनी चाहिए और उसे अफगानिस्तान की राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए.

इस बीच, जैसा कि अफगानिस्तान में स्थिति बिगड़ रही है क्योंकि तालिबान ने अमेरिकी सैनिकों की पूर्ण वापसी के साथ अपना आक्रमण तेज कर दिया है. इसके बाद भारत सरकार ने 10 अगस्त को अफगानिस्तान में भारतीय नागरिकों को तुरंत स्वदेश लौटने की व्यवस्था करने की सलाह दी थी जिसके बाद 11 अगस्त को मजार-ए-शरीफ स्थित वाणिज्य दूतावास से 50 कर्मचारियों और राजनयिकों की वापसी हुई.

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