दिल्ली

delhi

ETV Bharat / bharat

अक्सर संपत्ति मिलने के बाद मां-बाप को छोड़ देते हैं बच्चे- पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट

पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने बेटे द्वारा संपत्ति अपने नाम करने के बाद मां को बेघर करने के मामले में विधवा महिला का साथ दिया है. कोर्ट ने कहा कि अक्सर बच्चे संपत्ति अपने नाम होने के बाद मां-बाप को घर से निकाल देते हैं. आखिर क्या है पूरा मामला, जानने के लिए पढ़िये

बुजुर्ग
बुजुर्ग

By

Published : Jul 14, 2021, 2:41 PM IST

हैदराबाद: संपत्ति मिलने के बाद बच्चों द्वारा परिजनों को घर से निकलने के कई मामले आपने देखे और सुने होंगे. ऐसे ही एक मामले में पिछले हफ्ते पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने 76 वर्षीय विधवा के बचाव में आया था. महिला के बेटे ने पहले मकान और दुकान को अपने नाम किया और फिर उसे घर से निकाल दिया.

न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह और न्यायमूर्ति अशोक कुमार वर्मा की पीठ ने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण- पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 के उद्देश्य से उन वृद्ध माता-पिता के अधिकारों को सुरक्षित करने के उद्देश्य पर विचार किया, जिन्हें अक्सर उनके बच्चों द्वारा त्याग दिया जाता है.

कोर्ट ने कहा कि "अक्सर यह देखा जाता है कि अपने माता-पिता से संपत्ति मिलने के बाद, बच्चे उन्हें छोड़ देते हैं. ऐसी स्थिति में, माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 ऐसे बुजुर्ग माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक जीवन रेखा है, जिनकी देखभाल बच्चे नहीं करते हैं और वो उपेक्षित हो जाते हैं" 2007 के अधिनियम की धारा 23 इसके लिए एक निवारक है और ऐसे बुजुर्ग वृद्ध लोगों के लिए फायदेमंद है जो अपने जीवन के अंतिम समय में खुद की देखभाल करने में असमर्थ हैं. बच्चों से अपने बुजुर्ग माता-पिता के देखभाल की अपेक्षा की जाती है. जो न केवल एक मूल्य आधारित सिद्धांत है, बल्कि एक बाध्य कर्तव्य है, जैसा कि 2007 के अधिनियम के जनादेश में निहित है"

क्या है मामला ?

इस मामले में प्रतिवादी एक बुजुर्ग विधवा है, जिसके मृत पति ने उसकी भलाई सुनिश्चित करने के लिए एक घर और एक दुकान छोड़ी थी. लेकिन पति की मौत के दो साल बाद, सबसे छोटे बेटे ने धोखे से घर को अपने नाम पर स्थानांतरित किया और फिर अपनी मां से मारपीट करके घर से बाहर निकाल दिया.

प्रतिवादी विधवा ने दो से तीन बार इस मामले को लेकर पंचायत का रुख किया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. जिसके बाद उसने कोर्ट का रुख किया और घर के साथ दुकान की रजिस्ट्री अपने नाम करने की मांग की.

एसडीएम ने 19 अगस्त, 2019 को विधवा के नाम पर घर स्थानांतरित करने के साथ बेटे को आदेश दिया कि वह मां को हर महीने 2000 रुपये निर्वाह भत्ता भी दे. 4 सितंबर, 2015 को बेटे के नाम हुए संपत्ति के स्थानांतरण को भी रद्द करने का आदेश दिया गया.

इस आदेश के बाद बेटे ने जिला कलेक्टर फतेहाबाद की अध्यक्षता में अपीलीय न्यायाधिकरण (Appelate Tribunal) के समक्ष अपील दायर की थी. अपीलीय न्यायाधिकरण ने स्थानांतरण विलेख (transfer deed) को रद्द करके एसडीएम के निष्कर्षों को आंशिक रूप से उलट दिया, लेकिन यह सुनिश्चित किया कि विधवा को बेटे द्वारा भरण-पोषण भत्ता देना होगा. साथ ही महिला को उस घर में रहने की अनुमति भी दी.

जिसके बाद विधवा ने इस फैसले के खिलाफ रिट याचिका दायर की थी. जहां फैसला फिर से महिला के पक्ष में आया, जिसके तहत एसडीएम द्वारा पारित आदेश को पूरी तरह से बनाए रखने के निर्देश दिए गए. इस फैसले के बाद ने एकल न्यायाधीश के इस आदेश के विरुद्ध तत्काल पत्र पेटेंट अपील दायर की है.

कोर्ट का अवलोकन (observation)

कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता (बेटे) की यह दलील कि एसडीएम ने एक आदेश पारित किया था, जो प्रतिवादी द्वारा मांगी गई राहत से परे है, पूरी तरह से गलत है. अदालत ने कहा कि प्रतिवादी (विधवा) ने एसडीएम के समक्ष अपनी याचिका में उल्लेख किया था कि उसके बेटे ने धोखे से अपने नाम पर घर स्थानांतरित करके उसे घर से निकाल दिया था. इसके अलावा, 2007 अधिनियम की धारा 5(1)(सी) एसडीएम को किसी मामले का स्वत: संज्ञान लेने का अधिकार देती है.

कोर्ट ने कहा कि "इस तरह के सक्षम प्रावधानों की उपस्थिति में, यह नहीं कहा जा सकता है कि एसडीएम ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर मनमाने ढंग से काम किया है और प्रतिवादी नंबर 1- ईश्वर देवी द्वारा मांगी गई राहत से परे राहत दी है"

यहां कोर्ट ने संसद द्वारा पारित वरिष्ठ नागरिक अधिनियम का जिक्र करते हुए बुढ़ापे की चुनौतियों और इस कानून को लाने का उद्देश्य पर भी प्रकाश डालते हुए कहा कि बुजुर्ग पूरी तरह से किसी ना किसी पर निर्भर रहते हैं इसलिये ऐसे मामलों में इस अधिनियम को बढ़ावा देना चाहिए.

एसडीएम के फैसले की सराहना लेकिन...

कोर्ट ने आगे कहा कि एसडीएम के पास पूरी तरह से निरीक्षण करने के बाद एक विस्तृत, तर्कसंगत और बोलने वाला आदेश था. एसडीएम ने संबंधित पक्षों से भी बातचीत की थी और इस नतीजे पर पहुंचे थे कि याचिकाकर्ता ने अपनी मां की उपेक्षा की थी और उनके नाम पर घर स्थानांतरित होने के बावजूद उन्हें बुनियादी सुविधाएं नहीं दी थीं.

वहीं अपीलीय न्यायाधिकरण के आदेश को कोर्ट ने "अपमानजनक, गैर-बोलने वाला और कानून की नजर में गलत बताया और कहा कि इस तरह की शक्ति का प्रयोग बहिष्कृत किया जाना है". फिर न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि एसडीएम ने 2007 के अधिनियम की धारा 23 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का सही प्रयोग किया था और वृद्ध प्रतिवादी के हितों की रक्षा के लिए संबंधित हस्तांतरण विलेख को रद्द कर दिया था.

न्यायालय ने टिप्पणी की, "2007 के अधिनियम की धारा 23 (1) स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करती है कि यदि बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति को अपने पक्ष में स्थानांतरित करने के बाद अपने माता-पिता की देखभाल करने में विफल रहते हैं, तो संपत्ति के उक्त हस्तांतरण को धोखाधड़ी या जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव के तहत किया गया माना जाएगा. 2007 के अधिनियम की धारा 23 (1) के तहत प्रावधान बुजुर्ग लोगों को एक सम्मानजनक अस्तित्व प्रदान करने का प्रयास करता है"

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने ने एसडीएम के उपरोक्त निर्देशों को प्रभावी करने में न्यायालय के एकल न्यायाधीश के आदेश को बरकरार रखते हुए याचिका का निस्तारण किया.

ये भी पढ़ें: दो बच्चे के नियम से घबराकर अयोग्य पार्षद ने तीसरे बच्चे को बताया गैर, सुप्रीम कोर्ट का मानने से इंकार

ABOUT THE AUTHOR

...view details