नई दिल्ली :इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया फैसले ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दी गई गारंटी को बरकरार रखा और एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण ढंग से मुकदमा चलाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना की जिसने अपने राज्य में कानून और व्यवस्था के खराब संचालन को लेकर मुख्यमंत्री की आलोचना की थी. उम्मीद है कि राज्य सरकारों पर इसका एक अच्छा प्रभाव पड़ेगा जो असंतोष व्यक्त करने वालों के खिलाफ हमारे कानूनों के दंडात्मक प्रावधानों का लापरवाही से उपयोग करते है.
यशवंत सिंह के खिलाफ वर्ष 2020 के अगस्त में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की गई थी. सिंह ने एक ट्वीट किया था जिसमें राज्य को ऐसे जंगलराज में बदलने का आरोप लगाया था जहां कोई कानून नहीं है और इसे लेकर मुख्यमंत्री की आलोचना की थी. ट्वीट में अपहरण, फिरौती की मांग और हत्याओं की विभिन्न घटनाओं का भी उल्लेख किया गया था. सिंह पर भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के तहत मानहानि और और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 की धारा 66 डी के तहत दूसरे का रूप धारण करके धोखा देने के दो आरोप लगाए गए थे.
यशवंत सिंह ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और एफआईआर पर रोक लगाने की मांग की. याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि मामलों पर टिप्पणी करने का अधिकार यशवंत सिंह को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत दिए अधिकार के तहत आता है और उनका राज्य की स्थिति को लेकर व्यक्त किया गया असंतोष अपराध के दायरे में नहीं आता. इसलिए जो एफआईआर दर्ज की गई है वह सिर्फ राज्य सरकार के खिलाफ विचार व्यक्त करने से रोकने के वास्ते उसे प्रताड़ित करने के लिए है. उन्होंने यह भी कहा कि कोई अपराध नहीं हुआ है और एफआईआर को रद्द कर दिया जाना चाहिए.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस पंकज नकवी और विवेक अग्रवाल की एक खंडपीठ ने याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआईआर और अन्य कार्यवाही को रद्द करते हुए एक संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणी की. न्यायाधीशों ने कहा कि ट्वीट को आईपीसी की धारा 500 के तहत मानहानि के कुचक्र के दायरे में नहीं कहा जा सकता. न्यायाधीशों ने लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने वालों को बल दिया जब उन्होंने कहा कि राज्य की कानून-व्यवस्था पर असंतोष व्यक्त करना हमारे जैसे लोकतंत्र में एक संवैधानिक उदारवादी की पहचान है जो संवैधानिक रूप से अनुच्छेद -19 के तहत संरक्षित है. याचिकाकर्ता के खिलाफ दूसरा आरोप आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66 डी के उल्लंघन से संबंधित है जो कहता है कि किसी भी संचार के माध्यम, डिवाइस या कंप्यूटर संसाधन से किसी व्यक्ति को वेष बदलकर धोखा देता है तो उसे तीन साल तक कैद या एक लाख रुपए तक जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा.
न्यायाधीशों ने इन आरोपों का विश्लेषण किया ताकि एफआईआर में धारा 66-डी के तहत अपराध के लगाए गए आरोप की जांच हो सके लेकिन कहा कि ये आरोप दूर-दूर तक लागू नहीं होते. पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता ने जो दूसरे ट्वीटर हैंडल से कार्य किया वह वेष बदलने के अभियोजन का मामला नहीं है क्योंकि धोखा देने का कोई मामला नहीं है. इसलिए, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि इस धारा के तहत भी अपराध नहीं किया गया.
जहां तक राज्य का संबंध है तो यह वास्तव में सरकार और पुलिस पर एक बहुत ही घातक अभियोग है. एक नागरिक के खिलाफ सिर्फ इस वजह से मानहानि का आपराधिक मुकदमा चलाना क्योंकि मुख्यमंत्री जिस तरह से कानून और व्यवस्था की को लागू कर रहे है वह उससे निराश है और जिसमें एक लाख रुपये तक जुर्माना या दो साल तक की जेल की सजा हो सकती है, इस देश में अनसुनी है. न्यायाधीशों ने राज्य के खिलाफ ऐसी सटीक टिप्पणी की है. लेकिन, यह केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है. कई अन्य प्रमुख मंत्रियों और राज्य सरकारों ने संविधान की ओर से सभी नागरिकों को दिए गए मौलिक स्वतंत्रता को चुनौती देनी शुरू कर दी है.