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मुख्यमंत्री में हर हाल में आलोचना सुनने की शक्ति होनी चाहिए

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस पंकज नकवी और विवेक अग्रवाल की एक खंडपीठ ने याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआईआर और अन्य कार्यवाही को रद्द करते हुए एक संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणी की. न्यायाधीशों ने कहा कि ट्वीट को आईपीसी की धारा 500 के तहत मानहानि के कुचक्र के दायरे में नहीं कहा जा सकता. न्यायाधीशों ने लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने वालों को बल दिया...

Allahabad High Court
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Published : Jan 9, 2021, 9:18 PM IST

नई दिल्ली :इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया फैसले ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दी गई गारंटी को बरकरार रखा और एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण ढंग से मुकदमा चलाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना की जिसने अपने राज्य में कानून और व्यवस्था के खराब संचालन को लेकर मुख्यमंत्री की आलोचना की थी. उम्मीद है कि राज्य सरकारों पर इसका एक अच्छा प्रभाव पड़ेगा जो असंतोष व्यक्त करने वालों के खिलाफ हमारे कानूनों के दंडात्मक प्रावधानों का लापरवाही से उपयोग करते है.

यशवंत सिंह के खिलाफ वर्ष 2020 के अगस्त में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की गई थी. सिंह ने एक ट्वीट किया था जिसमें राज्य को ऐसे जंगलराज में बदलने का आरोप लगाया था जहां कोई कानून नहीं है और इसे लेकर मुख्यमंत्री की आलोचना की थी. ट्वीट में अपहरण, फिरौती की मांग और हत्याओं की विभिन्न घटनाओं का भी उल्लेख किया गया था. सिंह पर भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के तहत मानहानि और और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 की धारा 66 डी के तहत दूसरे का रूप धारण करके धोखा देने के दो आरोप लगाए गए थे.

यशवंत सिंह ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और एफआईआर पर रोक लगाने की मांग की. याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि मामलों पर टिप्पणी करने का अधिकार यशवंत सिंह को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत दिए अधिकार के तहत आता है और उनका राज्य की स्थिति को लेकर व्यक्त किया गया असंतोष अपराध के दायरे में नहीं आता. इसलिए जो एफआईआर दर्ज की गई है वह सिर्फ राज्य सरकार के खिलाफ विचार व्यक्त करने से रोकने के वास्ते उसे प्रताड़ित करने के लिए है. उन्होंने यह भी कहा कि कोई अपराध नहीं हुआ है और एफआईआर को रद्द कर दिया जाना चाहिए.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस पंकज नकवी और विवेक अग्रवाल की एक खंडपीठ ने याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआईआर और अन्य कार्यवाही को रद्द करते हुए एक संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणी की. न्यायाधीशों ने कहा कि ट्वीट को आईपीसी की धारा 500 के तहत मानहानि के कुचक्र के दायरे में नहीं कहा जा सकता. न्यायाधीशों ने लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने वालों को बल दिया जब उन्होंने कहा कि राज्य की कानून-व्यवस्था पर असंतोष व्यक्त करना हमारे जैसे लोकतंत्र में एक संवैधानिक उदारवादी की पहचान है जो संवैधानिक रूप से अनुच्छेद -19 के तहत संरक्षित है. याचिकाकर्ता के खिलाफ दूसरा आरोप आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66 डी के उल्लंघन से संबंधित है जो कहता है कि किसी भी संचार के माध्यम, डिवाइस या कंप्यूटर संसाधन से किसी व्यक्ति को वेष बदलकर धोखा देता है तो उसे तीन साल तक कैद या एक लाख रुपए तक जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा.

न्यायाधीशों ने इन आरोपों का विश्लेषण किया ताकि एफआईआर में धारा 66-डी के तहत अपराध के लगाए गए आरोप की जांच हो सके लेकिन कहा कि ये आरोप दूर-दूर तक लागू नहीं होते. पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता ने जो दूसरे ट्वीटर हैंडल से कार्य किया वह वेष बदलने के अभियोजन का मामला नहीं है क्योंकि धोखा देने का कोई मामला नहीं है. इसलिए, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि इस धारा के तहत भी अपराध नहीं किया गया.

जहां तक राज्य का संबंध है तो यह वास्तव में सरकार और पुलिस पर एक बहुत ही घातक अभियोग है. एक नागरिक के खिलाफ सिर्फ इस वजह से मानहानि का आपराधिक मुकदमा चलाना क्योंकि मुख्यमंत्री जिस तरह से कानून और व्यवस्था की को लागू कर रहे है वह उससे निराश है और जिसमें एक लाख रुपये तक जुर्माना या दो साल तक की जेल की सजा हो सकती है, इस देश में अनसुनी है. न्यायाधीशों ने राज्य के खिलाफ ऐसी सटीक टिप्पणी की है. लेकिन, यह केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है. कई अन्य प्रमुख मंत्रियों और राज्य सरकारों ने संविधान की ओर से सभी नागरिकों को दिए गए मौलिक स्वतंत्रता को चुनौती देनी शुरू कर दी है.

इस सूची में शीर्ष पर पश्चिम बंगाल राज्य होगा, न केवल ऐसे मामलों की संख्या के लिए बल्कि आलोचकों को जेल भेजने की प्रवृत्ति को शुरू करने के लिए भी. यह सब ममता बनर्जी की सरकार ने 2012 में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महापात्र और उनके साथी को ममता बनर्जी का उपहास उड़ाने वाले कार्टून वितरित को लेकर हुई गिरफ्तारी से शुरू हुआ. दोनों पर आईटी अधिनियम के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया गया था. गिरफ्तारी के बाद प्रोफेसर महापात्र ने राज्य मानवाधिकार आयोग में अपील की. जिसके बाद आयोग ने उनकी गिरफ्तारी की आलोचना करते हुए दोनों को रिहा करने का आदेश दिया और दोनों को 50-50 हजार रुपए मुआवजा भुगतान करने का निर्देश दिया. राज्य सरकार ने इस आदेश का अनुपालन नहीं किया. इसके बाद प्रोफसर को कलकत्ता उच्च न्यायालय जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. उच्च न्यायालय ने मानवाधिकार आयोग के आदेश को बरकरार रखा और महापात्र और उनके मित्र के लिए मुआवजे की राशि बढ़ाकर 75-75 हजार रुपए कर दी.

इससे भी ज्यादा बेतुका वर्ष 2015 में तमिलनाडु मे हुआ. एक लोक गायक पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का मामला इस वजह से सामने आया क्योकि उसने शराबबंदी के मुद्दे पर तत्कालीन मुख्यमंत्री जे. जयललिता की नीतियों की आलोचना की थी. केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्ववाली सरकार राज्य ललितकला अकादमी के उस फैसले से नाखुश थी जिसमें विशप पर बलात्कार का आरोप लगाते हुए एक कार्टून का चयन अपने वार्षिक पुरस्कारों के लिए किया था. ईसाई संगठन और राज्य सरकार चाहते थे कि अकादमी इस निर्णय पर फिर से विचार करे लेकिन अकादमी नहीं झुका.

हम लोगों में से जो वरिष्ठ नागरिक हैं, स्वस्थ जीवन जी रहे हैं और संपन्न हैं इस देश में लोकतांत्रिक वातावरण है जिसमें हमने सत्ता में बैठे व्यक्तियों के खिलाफ बहुत कठोर बातें कही हैं. जब स्वीडिश हथियार निर्माता. बोफोर्स की ओर से भारतीय नेताओं और अन्य को दी गई रिश्वत का विवाद चरम पर था तब इंडियन एक्सप्रेस ने हर दिन राम जेठमलानी के प्रधानमंत्री से प्रसिद्ध दस सवाल चलाए. प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिन्हें पढ़ रहे थे. उन्हें हर सुबह उसे मुस्कराहट के साथ सहन करना पड़ा.

वास्तव में, इनमें से कई मुख्यमंत्रियों को यह देखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया पर उन्हें गाली देने वालों से किस तरह से निपटते हैं. मोदी के आलोचक फेसबुक पर लगातार कार्टून अपलोड करते रहते हैं और ट्विटर पर उनका मीम्स बनाकर उपहास उड़ाते रहते है. वे अक्सर 'एक सबसे खराब प्रधानमंत्री' एक या कुछ इसी की तरह के हैशटैग बनाते हैं और अपने समर्थकों के कैंप में ट्रेंड कराना शुरू कर देते हैं. प्रधानमंत्री के पिछले जन्मदिन पर उन्होंने एक हैशटैग बनाया जिसमें उस दिन को 'राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस' करार दिया गया था और पूरे दिन इसे चालू रखा.

अक्सर, उनके राजनीतिक दुश्मन शालीनता की हदें पार कर जाते हैं. जैसा कि मोदी ने खुद पिछले लोक सभा चुनाव के दौरान एक जनसभा में कहा था कि कांग्रेस के एक नेता ने उन्हें एक 'गंदी नाली का कीड़ा' कहा. जबकि एक अन्य ने कहा कि वह 'एक पागल कुत्ता' हैं. क्या इससे भी अधिक अपमानजनक और गलत कुछ हो सकता है ? यदि प्रधानमंत्री कार्यालय इन सभी लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाने लगे तो उसे इन मुकदमों को संभालने के लिए एक पूरे विभाग को बनाने की जरूरत होगी. वास्तव में लोकतंत्र में यह सार्वजनिक जीवन में होने के खतरों में से एक है विशेष रूप से सोशल मीडिया के युग में भारत सहित लोकतांत्रिक देशों के नेताओं ने अपनी चमड़ी मोटी करना सीखा है. हमारे कुछ मुख्यमंत्रियों को इस व्यवहार का पालन करना चाहिए.

ए.सूर्यप्रकाश

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