छिन्दवाड़ा।जिले की चौरई विधानसभा देश में अपनी तरह की पहली विधानसभा होगी, जहां वोटर को संवाद के लिए ट्रांसलेटर भी लगता है. इस विधानसभा में करीब बारह हजार की आबादी ऐसी भी है, जहां राजनीतिक दलों के साथ उम्मीदवारों को चुनाव में पसीने छूट जाते हैं. वजह ये है कि 12 गांव में बसने वाली गौंडी जाति के मवासी समाज के ये लोग हिंदी नहीं जानते. अब ऐसे में ना वोटर अपनी बात नेताजी से कह पाते हैं, और नेताजी को भी अपनी बात रखने ट्रांसलेटर ले जाना पड़ता है. बाकी नारे बैनर पोस्टर का प्रचार इन गांवों में बेअसर रहता है.
नेताओं को पड़ती है ट्रांसलेटर की जरूरत:चौरई विधानसभा के बिछुआ विकासखंड के करीब 12 गांव में आदिवासी जनजातियां रहती हैं. इनमें अधिकतर बुजुर्ग और पुराने लोग हिंदी बोल और समझ नहीं पाते हैं. यहां के आदिवासी आज भी हिन्दी भाषा से अछूते हैं.गुलसी, खदबेली, डंगरिया, बिसाला, राधादेवी, तिवड़ी, पनियारी, चकारा, मोहपानी, टेकापानी, मझियापार, मुंगनापार, चीचगांवबड़ोसा शामिल है. जनजातीय आधारित इन पंचायतों में लोगों को हिन्दी भाषा की बजाए अपनी गोंडी मवासी भाषा ज्यादा पसंद है.
इन गांव में जब चुनाव प्रचार के दौरान नेता पहुंचते हैं, तो वह गांव के ही किसी ऐसी युवक या व्यक्ति का सहारा लेते हैं, जो दोनों भाषाओं को समझता हो. नेताजी पहले उस ट्रांसलेटर को अपनी बात गांव वालों को समझाने के लिए बोलते हैं और फिर गांव वाले अपनी बात नेता को बताते हैं. उनके बीच में ट्रांसलेटर ही मुख्य भूमिका निभाता है.