कोलकाता : 'बांग्ला निजेर मेये के चाय' (बंगाल अपनी बेटी को चाहता है) के नारे के साथ आक्रामक चुनाव प्रचार के जरिए ममता बनर्जी तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने और भाजपा को धूल चटाने में कामयाब रहीं.
स्वयं को बंगाल की बेटी बताने वालीं बनर्जी ने राजनीतिक हिंसा की बढ़ती आग और तेजी से फैलते कोरोना वायरस संक्रमण के बीच बुधवार को लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की.
चुनाव प्रचार के दौरान पैर में चोट लगने के बाद व्हील चेयर पर बैठ कर प्रचार करना, हवा का रुख भांपते हुए चुनावी सभाओं में चंडी पाठ करना, चुनाव प्रचार पर 24 घंटे रोक के फैसले के विरोध में धरना देना और अंतत: पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तीसरी बार तृणमूल कांग्रेस को बहुमत दिलाना ममता बनर्जी के उस जुझारू स्वभाव का परिचायक है जिसकी वजह से उन्हें 'बंगाल की शेरनी' कहा जाता है.
बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा की चुनावी युद्ध मशीन को लगभग अकेले अपने ही दम पर हरा दिया और इसी के साथ एक नेता रूप में ममता बनर्जी और एक पार्टी के रूप में तृणमूल कांग्रेस के बीच का अंतर शून्य हो गया.
तीसरी बार की इस जीत ने राज्य में न सिर्फ बनर्जी की स्थिति को और मजबूत किया, बल्कि यह राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में भी मदद करेगी. वर्ष 1977 से 2000 तक पश्चिम बंगाल की सत्ता पर मजबूती से काबिज रहे ज्योति बसु के बाद बनर्जी सबसे बड़ी जन नेता बन कर उभरी हैं.
आधुनिक राजनीति में माहिर बनर्जी का पश्चिम बंगाल से परे नयी दिल्ली में सत्ता के गलियारों में भी खासा प्रभाव है. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ गठबंधन में कई बार आम चुनाव लड़े.
बनर्जी ने एक दशक से अधिक पहले सिंगूर और नंदीग्राम में सड़कों पर हजारों किसानों का नेतृत्व करने से लेकर आठ साल तक राज्य में बिना किसी चुनौती के शासन किया. आठ साल के बाद उनके शासन को 2019 में तब चुनौती मिली, जब भाजपा ने पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में 18 सीटों पर अपना परचम फहरा दिया.
सिंगूर आंदोलन ने दी राजनीति को धार
बनर्जी (66) ने अपनी राजनीतिक यात्रा को तब तेज धार प्रदान की, जब उन्होंने 2007-08 में नंदीग्राम और सिंगूर में नाराज लोगों का नेतृत्व करते हुए वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ राजनीतिक युद्ध का शंखनाद कर दिया. इसके बाद वह राज्य में सत्ता के शक्ति केंद्र 'नबन्ना' तक पहुंच गई.
पढ़ाई के दिनों में बनर्जी ने कांग्रेस स्वयंसेवक के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. यह उनके करिश्मे का ही कमाल था कि वह संप्रग और राजग सरकारों में मंत्री बन गईं.
राज्य में औद्योगीकरण के लिए किसानों से 'जबरन' भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर वह नंदीग्राम और सिंगूर में कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ दीवार बनकर खड़ी हो गईं और आंदोलनों का नेतृत्व किया. ये आंदोलन उनकी किस्मत बदलने वाले रहे और तृणमूल कांग्रेस एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई.
1998 में बनाई तृणमूल कांग्रेस पार्टी