पटना : 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाली सत्ता के हुकूमत की जंग की तैयारी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल चाहे जैसे कर रहे हों, लेकिन बिहार में यूपी फतह को लेकर जातीय राजनीति (ethnic politics) की सियासत विकास के मुद्दे पर सवाल (questions on development) लिए तैयार है.
बात वर्तमान हालत पर ही की जाए तो बिहार में कोरोना (Corona) भले ही जाति देखकर काम न कर रहा हो, लेकिन बिहार की राजनीति जाति से आगे जाकर विकास की राह पकड़ना ही नहीं चाह रही. दरअसल, 1989 में बिहार में जाति की राजनीति की ऐसी बयार तैयार हुई कि जब भी जाति की राजनीति को उकसाया गया तभी बयानों वाली सियासत शुरू हो जाती. बिहार में हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (Hindustani Awam Morcha) के मुखिया जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) और विकासशील इंसान पार्टी (Vikassheel Insaan Party) के मुकेश सहनी (Mukesh Sahani) जातीय सियासत पर मुखर होकर बयान दे रहे हैं, जो अब उनके सहयोगी दलों को नागवार लग रहा है.
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बिहार में हम सुप्रीमो जीतन राम मांझी और 'सन ऑफ मल्लाह' नाम से विख्यात मुकेश सहनी जातीय राजनीति के ऐसे दो नाम बन गए हैं, जो नीतीश और लालू की राजनीति के बराबर जगह न बना पाए हों, लेकिन राजनीतिक चर्चा में इनके बयान नकारे भी नहीं जाते. बिहार में जातीय राजनीति का ढांचा बदल रहा है, जिसे लालू ने हथियार बनाया, नीतीश ने उसी से राज किया और अब जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी इसकी सियासत में लगे हैं.
बिहार में दलित राजनीति
इतिहास के पन्नों को पलटें तो बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित किया था. इसके बाद उम्मीद जगी थी कि बिहार में समाज के दबे-कुचले तबके की सामाजिक और आर्थिक तरक्की का रास्ता खुलेगा, लेकिन हालात नहीं बदलें. 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने, जो देश के पहले दलित मुख्यमंत्री थे. 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बने थे. फिर भी बिहार की अनुसूचित जाति के सामाजिक और आर्थिक हालात में न तो कोई सुधार आया है और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके.
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फिलहाल, हाल के समय में मजदूरों की समस्या (labor problem) ने बिहार में दलित आंदोलन की एक नई संभावना जगाई हैं. जीतनराम मांझी ने करीब आठ महीने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अपना सारा ध्यान इस बात पर रखा कि वह कैसे महादलित का चेहरा बन सकें. नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर एक बड़ा दलित गेम खेला था, लेकिन जीतन राम मांझी बागी हो गए और अलग पार्टी भी बना ली. हम प्रमुख जीतन राम मांझी दलित वोट बैंक 22 फीसद तक होने का दावा करते हैं. वह जाति की सियासत में बिहार के दूसरे दलों पर दबाव बना रहे हैं. यूपी और बिहार में जातीय समूह ताकतवर बनकर उभर रहे हैं. ये लोग अपनी जाति के साथ इस तरह गोलबंद हो रहे हैं कि अच्छा-खासा वोट काट लेते हैं. जाति की इसी राजनीति को यूपी में भजाने के लिए बिहार से गोलबंदी की जा रही है.
जाति की राजनीति वाली नई जमीन है यूपी-बिहार
यूपी-बिहार की जातियों की बात की जाय तो इसमें पहला- ब्राह्मण, क्षत्रिय, उच्च बनिया, कायस्थ को रखा जाय. ये वे जातियां हैं, जो अमूमन अपनी जाति की उम्मीदवार रहती हैं. दूसरा- यादव, कुर्मी, लोध, कोइरी, जाटव, खटिक. इन जातियों को ओबीसी (OBC) और एससी (SC) की सवर्ण जातियां कहा जा सकता है. इन जातियों के करीब तीन दशक तक सत्ता के करीब रहने के बाद अन्य ओबीसी व एससी-एसटी (SC-ST) जातियों को इनसे जलन होने लगी है. तीसरा- निषाद, राजभर, काछी, केवट, बढ़ई, लोहार को रखा जा सकता है. इन्हें सपा, बसपा, राजद और जदयू ने प्रतिनिधित्व दिया था. ये अब खुद अपनी जाति वाला सीएम बनाने के सपने देख रहे हैं. ये अपने स्वतंत्र अस्तित्व वाले नेताओं के पीछे एकजुट हो रहे हैं. यही मांझी और सहनी के लिए सियासी खेती की उपजाऊ जमीन दिख रही है.
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