नई दिल्ली: “गुरपतवंत सिंह पन्नू कनाडा में बैठ कर जो भी कांड कर रहा है, उससे मैं सहमत नहीं हूं. इससे सिखों की छवि खराब होती हैं, वो लड़कों को भड़का रहा है, फिर वे पकड़े जाते हैं और अंत में सिख ही बदनाम होते हैं. लेकिन फिर कुछ लोग हिंदू राष्ट्र की बात क्यों करते हैं.”
गुस्से में कहे गए ये शब्द हैं शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के जनरल सेक्रेटरी महेश इंदर ग्रेवाल के. भारत में रहने वाले ज़्यादातर सिखों की सोच कुछ इसी लाइन के आस-पास चलती है. खेती-बाड़ी और बिज़नेस के धंधों में अपनी मेहनत के बलबूते उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी पहचान तो बनाई ही है, देश के लिए भी गर्व करने की वजह बने. लेकिन उनकी नाराज़गी भी झलकती है- “सिख धर्म कभी भी किसी दूसरे धर्म के खिलाफ नहीं होता, पहले हमारे तीन टुकड़े किए फिर हमारा पानी बांट दिया.”
ग्रेवाल ने जो भी कहा वो हमें कोई साठ बरस पहले के पंजाब के इतिहास की ओर ले जाता है. जब इंदिरा गांधी ने मास्टर तारा सिंह की स्वायत्त पंजाब राज्य की मांग न मानते हुए पंजाब को तीन हिस्सों में बांट दिया था. पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़. पंजाब के कुछ हिस्सों को हिमाचल प्रदेश में भी मिला दिया गया था. जानकार मानते हैं कि तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऐसा इस आंदोलन की धार को खुंद करने के लिए किया. उनकी सोच थी कि इसे तीन हिस्सों में बांटने से आंदोलन की ताकत कम होगी, इसके नेता बिखर जाएंगे और आंदोलन धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा. लेकिन सिखों की नाराज़गी और बढ़ती गई, जिसने अगले कुछ सालों में खूनी संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर लिया जिसकी अंतिम परिणति ऑपरेशन ब्लू स्टार और फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में हुई. इसमें पाकिस्तान की आईएसआई का भी योगदान खासा रहा.
लेकिन एक बड़ा सवाल ये कि अगर भारत के ज़्यादातर सिख खालिस्तान का समर्थन नहीं करते तो विदेशों से खालिस्तान की मुहिम चलान वाले कौन हैं और वे वहां कैसे पनपते हैं. जवाब दिया रोबिंदर सचदेव ने जिन्होंने भारत की डिप्लोमेसी को करीब से देखा है- “84 के दंगों के बाद से सिखों का पश्चिमी देशों में जाना बढ़ा है. खालिस्तान के लिए आंदोलन की ज़मीन पहले से तैयार थी. खास तौर पर पिछले दस सालों में माइग्रेशन बहुत बढ़ी है. किसानों के आंदोलन के बाद ये और बढ़ गई. वहां गए लोगों में भी सरकार के खिलाफ और हिंदुओं के डॉमिनेशन के खिलाफ नाराज़गी बढती रही. सोशल मीडिया की वजह से इसमें और इजाफा हुआ.”
लेकिन इसमें कनाडा या दूसरे पश्चिमी देशों की सरकारें खालिस्तानियों के ऊपर शिकंजा क्यों नहीं कसती, इस सवाल के जवाब में सचदेव बताते हैं कि इसके लिए उन देशों के कानून ज़िम्मेदार हैं- “कई पश्चिमी देशों में जहां खालिस्तानी प्रदर्शन करते हैं, वहां इसकी आज़ादी है, झंडा जलाना कोई अपराध नहीं है, अमेरिका में तो अपना ही झंडा जलाना अपराध नहीं माना जाता. इसलिए पुलिस इनके ऊपर कोई केस नहीं बना पाती. दूतावास की खिड़की पर पत्थर मार कर शीशा तोड़ भी दिया तो उस पर केस बहुत मामूली बनता है और हल्का जुर्माना या कुछ दिन की सज़ा से मामला निपट जाता है.”