देहरादून:भारतीय सेना के अधीन संचालित ईको टास्क फोर्स दुनिया की पहली ऐसी फोर्स है, जो पर्यावरण के लिए काम कर रही है. इकोलॉजिकल टास्क फोर्स देश के करीब 8 राज्यों में काम कर रही है. लेकिन उत्तराखंड में अब इस फोर्स के भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है. इसके पीछे की वजह हर साल फोर्स पर लगने वाला वह बजट है, जिसको चुकता करने में अब तक उत्तराखंड की सरकारें, कामयाब नहीं हो पाई हैं. स्थिति यह है कि अब यह रकम इतनी बड़ी हो चुकी है कि इसका वहन करना सरकार के लिए भारी दिखने लगा है.
सरहद पर अत्याधुनिक बंदूकों और टैंकों के साथ देश की सुरक्षा को फुलफ़्रूप करने वाले जांबाज पर्यावरण के मोर्चे पर भी अपनी एक खास जगह बना चुके हैं. यूं तो पर्यावरण संरक्षण से सेना का पुराना नाता है. लेकिन इन दिनों एक बार फिर भारतीय सेना के अधीन काम करने वाले इकोलॉजिकल टास्क फोर्स की अहम भूमिका को उत्तराखंड में याद किया जा रहा है. दरअसल, इसकी बड़ी वजह ईको टास्क फोर्स पर प्रदेश में मंडराता खतरा है, जिसे राज्य सरकारों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण खड़ा किया है.
इससे पहले कि ईको टास्क फोर्स की इन कंपनियों पर मंडराते खतरे पर हम बात करें, लेकिन सबसे पहले जानिए कि इन टास्क फोर्स का गठन क्यों किया गया. इसके किस तरह के फायदे 1980 दशक में महसूस किए गए. इन सवालों का जवाब 127 ईको टास्क फोर्स के पूर्व कमांडिंग ऑफिसर रिटायर्ड कर्नल हरिराम सिंह राणा देते हैं.
कर्नल हरि राम सिंह राणा बताते हैं कि जिस समय मसूरी उजड़ रहा था, तब भारतीय सेना के अधीन इस फोर्स को मसूरी में पर्यावरण संरक्षण के तहत वृक्षारोपण की जिम्मेदारी दी गई थी. यही नहीं भू-कटाव की समस्या काफी निदान इसी फोर्स के प्रयासों से मसूरी में हुआ. कर्नल राणा कहते हैं कि उस दौरान दो कंपनियां उत्तराखंड में लगाई गई थी. इस तरह दो कंपनियों के करीब 200 लोगों ने इस काम को पूरी शिद्दत के साथ किया और आज मसूरी जिस हालत में दिखाई देती है. उसके पीछे ईको ट्रांसपोर्ट की वही मेहनत छिपी हुई है.
न केवल उत्तराखंड बल्कि देश के कई राज्यों में इसी तरह से पर्यावरण संरक्षण के साथ दूसरे को समस्याओं के निदान के लिए भी इनको ट्रांसपोर्ट को काफी अहम माना गया. उस दौरान देश की प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की रजामंदी के बाद इस फोर्स का गठन किया गया था.