नई दिल्ली: यूक्रेन पर भारत की घोषित स्थिति, संघर्ष को समाप्त करने के लिए शांतिपूर्ण साधनों पर जोर देने और किसी के पक्ष में ना झुकने की रही है. अब तक विशेषज्ञों का मानना था कि रणनीतिक स्वायत्तता की अपनी घोषित नीति का अनुसरण राष्ट्रीय हित में सर्वोपरि है. लेकिन अब यह भारत को महंगा पड़ सकता है. ऐसे संकेत हैं कि 'खालिस्तान' आंदोलन पर ब्रिटेन की सरकार अपनी स्थिति बदल सकती है. जो भारत के लिए बहुत नुकसानदेय हो सकता है. ब्रिटेन की सरकार द्वारा खालिस्तान आंदोलन पर अपनी स्थिति बदलने से सिखों के लिए एक अलग देश स्थापित करने की लिए शुरू हुआ और लगभग मृतप्राय हो चुके आंदोलन को फिर से हवा मिल सकती है. कनाडा और जर्मनी के साथ-साथ ब्रिटेन को ऐसा विदेशी हॉटस्पॉट में माना जाता है जहां आंदोलन के समर्थकों की उपस्थिति उल्लेखनीय है.
साढ़े चार साल तक इस मुद्दे पर चुप्पी बनाए रखने के बाद अचानक, ब्रिटिश पीएम बोरिस जॉनसन ने हाल ही में ब्रिटिश विपक्षी नेता कीर स्टारर को एक पत्र लिखकर स्वीकार किया है कि एक ब्रिटिश सिख कार्यकर्ता जगतार सिंह जोहल को 'मनमाने ढंग से' एक भारतीय जेल में 'उनके खिलाफ औपचारिक आरोप लगाए बिना' हिरासत में लिया गया है.
जोहल को भारतीय पुलिस ने नवंबर 2017 में खालिस्तान लिबरेशन फोर्स (केएलएफ) से कथित संबंधों को लेकर गिरफ्तार किया था. केएलएफ जो एक प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन है. इस संगठन का उद्देश्य सिखों के लिए एक अलग मातृभूमि का निर्माण करना है. जॉनसन ने स्टारर को लिखे पत्र में स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी हालिया बैठकों के दौरान व्यक्तिगत रूप से भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी के साथ इस मामले को उठाया था. इस कड़ी में समय दिलचस्प है क्योंकि लेबर पार्टी के शीर्ष नेता को जॉनसन का पत्र मई में संयुक्त राष्ट्र पैनल की रिपोर्ट के बाद मिला था. संयुक्त राष्ट्र पैनल की रिपोर्ट में जोहल के मामले को उजागर किया गया था. साथ ही भारतीय नजरबंदी से उनकी रिहाई के लिए भी कहा गया था.
भारत को जानबूझकर 29-30 जून को मैड्रिड में एक 'ऐतिहासिक' नाटो शिखर सम्मेलन से बाहर रखा गया था, जिसमें सभी 30 सदस्य देश और यूरोप और एशिया के प्रमुख नाटो भागीदार शामिल हुए थे. और उससे ठीक एक दिन पहले, 28 जून को, सिख समुदाय से संबंधित 12 ब्रिटिश सेना और रॉयल एयर फोर्स (RAF) के अधिकारियों की एक टीम ने पाकिस्तान का दौरा किया. भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के एक सूत्र के अनुसार, 'डिफेंस सिख नेटवर्क' (DSN) नामक संगठन से संबंधित 12 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को पाकिस्तान सेना के सर्वशक्तिमान प्रमुख जनरल कमर बाजवा के साथ बातचीत करने के लिए पाकिस्तान भेजा गया था.
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DSN ब्रिटिश सेना में सिखों की सेवा के लिए एक केंद्र बिंदु के रूप में कार्य करता है. आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश रक्षा मंत्रालय का हिस्सा है. इसलिए, जॉनसन के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सरकार की मंजूरी के बिना पाकिस्तान की यात्रा हुई हो ऐसा नहीं माना जा सकता है. कम से कम 150 सिख ब्रिटिश सेना में सेवा करते हैं. 6 जून को, डीएसएन ने सोशल मीडिया पर अपने पोस्ट में 'ऑपरेशन ब्लू-स्टार' का जिक्र किया. पोस्ट में कहा गया है कि जून का महीना दुनिया भर के सिखों के लिए कई दर्दनाक यादें रखता है. जैसा कि वे 1984 की घटनाओं को याद करते हैं, हरमंदिर साहिब और अकाल तख्त की पवित्रता से समझौता किया गया था. डीएसएन जीवन के अनगिनत नुकसान को याद करने में सिख समुदाय के साथ खड़ा है और इस समय से सिख समुदाय और उसके बाहर कई लोगों के लिए चल रहे आघात को पहचानता है. जरनैल सिंह भिंडरावाले के नेतृत्व वाले अलगाववादी खालिस्तान आंदोलन के समर्थकों को बाहर निकालने के लिए अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के अंदर 1-10 जून, 1984 को किए गए एक भारतीय सैन्य अभियान के लिए को 'ऑपरेशन ब्लू-स्टार' के नाम से जाना जाता है.
ऐसा लगता है कि यूके का कदम अमेरिका में इसी तरह के कदमों के अनुरूप है. 2 जुलाई को, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (USCIRF) के आयुक्त डेविड करी ने ट्वीट किया कि USCIRF भारत सरकार की आलोचनात्मक आवाजों के निरंतर दमन के बारे में चिंतित है- विशेष रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों और उन पर रिपोर्टिंग और उनकी वकालत करने वालों के लिए. USCIRF के एक अन्य आयुक्त स्टीफन श्नेक ने भी ट्वीट किया कि भारत में मानवाधिकार अधिवक्ताओं, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यक धार्मिक आस्था के नेताओं को धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति के बारे में बोलने और रिपोर्ट करने के लिए उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. यह लोकतंत्र के इतिहास वाले देश का प्रतिबिंब नहीं है. 30 जून को, अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी राजदूत-राशद हुसैन ने कहा कि अमेरिका अपनी 'चिंताओं' के बारे में भारत से सीधे बात कर रहा है. यूएससीआईआरएफ एक अमेरिकी संघीय सरकारी एजेंसी है जो राष्ट्रपति, राज्य सचिव और कांग्रेस को नीतिगत सिफारिशें करती है और इन सिफारिशों के कार्यान्वयन को ट्रैक करती है.
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भारत की तटस्थता :भारत और अमेरिका के बीच हाल ही में बढ़ती दूरी के कारणों की तलाश करना बहुत मुश्किल नहीं है. जबकि भारत चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका की इंडो-पैसिफिक नीति पर सहायता और समर्थन के लिए आगे आता रहा है. इसके मूल में 24 फरवरी को यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई की स्पष्ट रूप से निंदा ना करना और इस मसले पर पश्चिमी लाइन को अस्वीकार करना है. बल्कि 24 फरवरी, 2022 को यूक्रेन संघर्ष शुरू होने के बाद से भारत और रूस के बीच व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं. जबकि अमेरिका के नेतृत्व में रूस पर कई प्रतिबंध लगाये गये हैं.
वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने में जुटा ब्रिक्स : इधर, ब्राजील, रूस, भारत और चीन के संस्थापक सदस्यों के रूप में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के मंच के आकार लेने के तेरह साल बाद दक्षिण अफ्रीका भी ब्रिक्स में शामिल हो गया. ब्रिक्स अब वैश्विक क्षेत्र में एक बड़ी भूमिका के लिए तैयार है. इसके अलावा चीन में आयोजित होने वाले 14वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए ईरान और अर्जेंटीना ने भी आवेदन दिया है. इस बात की प्रबल संभावना है कि एशिया, यूरोप, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में उपस्थिति के साथ यह समूह पश्चिम एशिया और दक्षिण लैटिन अमेरिका में अपने प्रभाव को और बढ़ा सकता है. यह अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था के लिए एक नई चुनौती बन सकता है.
43.3 % जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है ब्रिक्स : भारत- 17.7%, चीन- 18.47%, ब्राजील- 2.73%, रूस - 1.87%, दक्षिण अफ्रीका- 0.87%, अर्जेंटीना (संभावित सदस्य)- 0.58%, ईरान (संभावित सदस्य)- 1.08%. जबकि यूरोपिय संघ 9.8% और 30-सदस्यीय नाटो गठबंधन 12.22% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता हैं.वहीं दुनिया की जीडीपी में योगदान के पैमाने पर देखें तो हम पाते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व आर्थिक आउटलुक द्वारा दिए गए 2021 के लिए संयुक्त अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (26.43%) में चीन- 17.8%, भारत- 3.1%, ब्राजील- 1.73%, रूस- 1.74%, दक्षिण अफ्रीका- 0.44%, अर्जेंटीना- 0.48% और ईरान- 1.14% का योगदान दे रहे हैं. दूसरी ओर इसमें 2020 में यूरोपीय संघ की हिस्सेदारी कुल अनुमानित 15.4% थी. वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में जी -7 देशों की हिस्सेदारी 31% थी जबकि जी -20 का वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा 42% था.