नई दिल्ली : पिछले 24 साल में यह पहला चुनाव है जब बीजेपी पंजाब में अपने सबसे पुराने गठबंधन के साथी शिरोमणि अकाली दल के बिना चुनाव मैदान में उतरी है. इस चुनाव में पार्टी ने जिन दलों को चुना है, वह भी पंजाब की राजनीति में नए ही है. इस नए गठबंधन में बीजेपी 68 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 1992 के बाद पहली बार भारतीय जनता पार्टी 65 से अधिक विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़़ रही है. सवाल यह है कि शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन खत्म होने के बाद बीजेपी को पंजाब चुनाव में नुकसान होगा ?
इस बार किसान आंदोलन के बैकग्राउंड के साथ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. तीन कृषि कानून बनने के बाद करीब एक साल तक चले आंदोलन के बाद केंद्र सरकार को पैर पीछे खींचने पड़े थे. देश के पॉलिटिकल एक्सपर्ट भी यह मान रहे हैं कि इन चुनावों के नतीजों पर किसान आंदोलन का साया रहेगा. इस कारण ही एनडीए में बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल ने गठबंधन खत्म कर दिया और विपक्ष में खड़ा हो गया.
नए गठबंधन में नया रोल : कई मायनों में इस चुनाव पंजाब में बीजेपी के लिए चुनौती बढी है. उसे इस चुनाव में न सिर्फ अकाली दल बल्कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के मुकाबले भी खुद को खड़ा करना है. इसलिए बीजेपी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस (Punjab lok congress) और सुखदेव सिंह ढींढसा की पार्टी अकाली दल संयुक्त ( Shiromani Akali Dal Sanyukt) से चुनावी समझौता किया है. इसके तहत बीजेपी 68, पंजाब लोक कांग्रेस 34 और अकाली दल संयुक्त 15 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.
- शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी ने अपनी रणनीति बदली है. 2017 के चुनावों तक भाजपा हिंदू और शहरी मतदाताओं तक ही सीमित थी. अकाली दल के कारण बीजेपी ने पिछले 25 साल में सिख समुदाय में पैठ बनाने की कोशिश नहीं की. अब हालात बदल गए हैं. भाजपा ने 50 फीसदी से ज्यादा सिख कैंडिडेट उतारे हैं. साथ ही शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस के सिख नेताओं को पार्टी में शामिल कराया.
- इसके अलावा बीजेपी ने नए गठबंधन में अपनी भूमिका बदल ली है. अकाली दल के साथ बीजेपी हमेशा छोटे भाई की भूमिका में रही है. जबकि कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी के साथ गठबंधन में बीजेपी इस बार बड़े भाई की भूमिका में है.
- शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन के दौर में बीजेपी को पंजाब में पनपने का मौका नहीं मिला. तब उसके हिस्से में कुल 117 विधानसभा सीटों में से अधिकतम 23 सीटें ही आती रहीं. इस कारण पिछले 25 साल में बीजेपी का वोट प्रतिशत 9 फीसदी से कम ही रहा.
बीजेपी अपनी स्थापना के साथ ही पंजाब में चुनाव लड़ रही है. जनता पार्टी से अलग होने के बाद बीजेपी ने 1980 में पहली बार चुनाव लड़ा और एक सीट के साथ करीब 6.48 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. 1992 के चुनाव में बीजेपी ने 66 सीटों पर कैंडिडेट उतारे थे. तबतक उसका किसी दल के साथ गठबंधन नहीं था. तब भारतीय जनता पार्टी ने पंजाब में 6 सीटें जीती थीं और उसे 16.48 प्रतिशत वोट मिले थे. 25 साल के गठबंधन के दौरान बीजेपी को कई बार सीटें तो अधिक मिलीं, मगर उसका वोट प्रतिशत 9 के नीचे ही रहा.
पंजाब में वोट प्रतिशत बढ़ाने की तैयारी :पॉलिटिकल एक्सपर्ट मानते हैं कि इस चुनाव में बीजेपी के पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है, मगर वह अपने नई भूमिका में 5 से अधिक सीटें हासिल कर लेती है तो इसे उपलब्धि ही माना जाएगा. हालांकि बीजेपी नेतृत्व के रुख और चुनाव प्रचार को देखते हुए यह माना जा सकता है कि बीजेपी अधिक सीट जीतने के बजाय वोट प्रतिशत बढ़ाने पर फोकस कर रही है. प्रचार के दौरान उसने हिंदू और शहरी पार्टी की छवि से बाहर आने की कोशिश की है.
किसान आंदोलन का कितना होगा असर :एक्सपर्ट मानते हैं कि अगर यह चुनाव किसान आंदोलन के साथ होते तो बीजेपी के लिए पंजाब में प्रचार करना भी मुश्किल होता. मगर अब हालात में बदल गए हैं. ग्रामीण इलाकों में किसानों में थोड़ा रोष है, लेकिन चुनाव में वह मुद्दा नहीं है. खुद किसानों आंदोलन से निकली पार्टी किसान समाज मोर्चा और संयुक्त संघर्ष पार्टी भी इस मुद्दे पर पीछे ही रह गई है. इस बार के चुनाव बेअदबी, खनन और ड्रग्स के मुद्दों पर ही लड़ी जा रही है. अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी चुनावी रैली में किसान आंदोलन का जिक्र नहीं कर रहे हैं तो दूसरी पार्टियां भी इस पर नहीं बोल रही है.